श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- अब भगवान् पूर्व श्लोक के वर्णानानुसार आत्मा को सर्वश्रेष्ठ समझकर कामरूप वैरी को मारने के लिये आज्ञा देते हैं- एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
उत्तर- मनुष्यों का ज्ञान अनादिकाल से अज्ञान द्वारा आवृत हो रहा है; इस कारण वे अपने आत्म स्वरूप को भूले हुये हैं। स्वयं सबसे श्रेष्ठ होते हुए भी अपनी शक्ति को भूलकर कामरूप वैरी के वश में हो रहे हैं। लोकप्रसिद्धि से और शास्त्रों द्वारा सुनकर भी लोग आत्मा को वास्तव में सबसे श्रेष्ठ नहीं मानते; यदि आत्मस्वरूप को भली-भाँति समझ लें तो रागरूप काम का सहज ही नाश हो जाय। अतएव आत्मस्वरूप को समझना ही इसे मारने का प्रधान उपाय हैं इसीलिये भगवान् ने आत्मा को बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ समझकर काम को मारने के लिये कहा है। आत्मतत्त्व बहुत ही गूढ़ है। महापुरुषों द्वारा समझाये जाने पर कोई सूक्ष्मदर्शी मनुष्य ही इसे समझ सकता है। कठोरपनिषद् में कहा है कि ‘सब भूतों के अंदर छिपा हुआ यह आत्मा उनके प्रत्यक्ष नहीं होता, केवल सूक्ष्मदर्शी पुरुष ही अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा इसे प्रत्यक्ष कर सकते हैं।’[1] प्रश्न- यहाँ ‘आत्मानम्’ का अर्थ मन और ‘आत्मना’ का अर्थ ‘बुद्धि’ किस कारण से किया गया है? उत्तर- शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और जीव- इन सभी का वाचक आत्मा है। उनमें से सर्वप्रथम इन्द्रियों को वश में करने के लिये इकतालीसवें श्लोक में कहा जा चुका है। शरीर इन्द्रियों के अन्तर्गत आ ही गया, जीवात्मा स्वयं वश में करने वाला है। अब बचे मन और बुद्धि; बुद्धि को मन से बलवान् कहा है, अतः इसके द्वारा मन को वश में किया जा सकता है। इसीलिये ‘आत्मानम्’ का अर्थ ‘मन’ और ‘आत्मना’ का अर्थ ‘बुद्धि’ किया गया है। प्रश्न- बुद्धि के द्वारा मन को वश में करने की क्या रीति है? उत्तर- भगवान् ने छठे अध्याय में मन को वश में करने के लिये अभ्यास और वैराग्य- ये दो उपाय बतलाये हैं।[2] प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में मनुष्य का स्वाभाविक राग-द्वेष रहता है, विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध होते समय जब-जब राग-द्वेष का अवसर आवे तब–तब बड़ी सावधानी के साथ बुद्धि से विचार करते हुए राग–द्वेष का अवसर आवे तब–तब बड़ी सावधानी के साथ बुद्धि से विचार करते हुये राग द्वेष के वश में न होने की चेष्टा रखने से शनैः-शनैः राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं। यहाँ बुद्धि से विचारकर इन्द्रियों के भोगों में दुःख और दोषों का बार-बार दर्शन कराकर मन की उनमें अरुचि उत्पन्न कराना वैराग्य है और व्यवहारकाल में स्वार्थ के त्याग की और ध्यान के समय मन को परमेश्वर के चिन्तन में लगाने की चेष्टा रखना और मन को भोगों की प्रवृत्ति से हटाकर परमेश्वर के चिन्तन में बार-बार नियुक्त करना अभ्यास है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्य सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥ (कठोरपनिषद 1।3।12)
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