श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- कठोरपनिषद् में रथ के दृष्टान्त से यह विषय भली-भाँति समझाया गया है; वहाँ कहा है कि आत्मा रथी है, बुद्धि उसका सारथि है, शरीर रथ है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और शब्दादि विषय ही मार्ग हैं।[3] यद्यपि वास्तव में रथी के अधीन सारथि, सारथि के अधीन लगाम और लगाम के अधीन घोड़ों का होना ठीक ही है, तथापि जिसका बुद्धिरूप सारथि विवेकज्ञान से सर्वथा शून्य है, मनरूप् लगाम जिसकी नियमानुसार पकड़ी हुई नहीं है, ऐसे जीवात्मारूप रथी के इन्द्रियरूप घोड़े उच्छृंखल होकर उसे दुष्ट घोड़ों की भाँति बलात् उलटे (विषय) मार्ग में ले जाकर गड्ढे में डाल देते हैं।[4] इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर जीवात्मा का आधिपत्य नहीं होता, वह अपने सामर्थ्य को भूलकर उनके अधीन हुआ रहता है, तभी तक इन्द्रियाँ मन और बुद्धि को धोखा देकर सबको बलात् उलटे मार्ग में घसीटती हैं अर्थात् इन्द्रियाँ पहले मन को विषय सुख का प्रलोभन देकर उसे अपने अनुकूल बना लेती हैं, मन और इन्द्रियाँ मिलकर बुद्धि को अपने अनुकूल बना लेते हैं और ये बस मिलकर आत्मा को भी अपने अधीन कर लेते हैं; परंतु वास्तव में तो इन्द्रियों की अपेक्षा मन, मन की अपेक्षा बुद्धि और सबकी अपेक्षा आत्मा ही बलवान् है; इसलिये वहाँ (कठोपनिषद् में) कहा है कि जिसका बुद्धिरूप सारथि विवेकशील है, मनरूप लगाम जिसकी नियमानुसार अपने अधीन है, उसके इन्द्रियरूप घोड़े भी घोड़ों की भाँति वश में होते हैं तथा ऐसे मन, बुद्धि और इन्द्रियों वाला पवित्रात्मा मनुष्य उस परमपद को पाता है जहाँ जाकर वह वापस नहीं लौटाता।[5] गीता में भी जीते हुए मन, बुद्धि और इन्द्रियों से युक्त अपने आत्मा को मित्र और बिना जीते हुए मन, बुद्धि और इन्द्रियों वाले को अपने शत्रु के समान बतलाया है।[6] अतः बिना जीती हुई इन्द्रियाँ वास्तव में मन-बुद्धि की अपेक्षा निर्बल होती हुई भी प्रबल रहती हैं, इस आशय से दूसरे अध्याय का कथन है और यहाँ उनकी वास्तविक स्थिति बतलायी गयी है। अतएव पूर्वा पर में कोई विरोध नहीं है। प्रश्न- यहाँ ‘परतः’ पद का अर्थ ‘अत्यन्त पर’ किया गया है; इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- कठोरपनिषद् में जहाँ यह विषय आया है, वहाँ बुद्धि से पर महत्तत्त्व को, उससे पर अव्यक्त को और अव्यक्त से भी पर पुरुष को बतलाया गया है तथा यह भी कहा गया है कि यही पराकाष्ठा है- परत्व की अन्तिम अवधि है, इससे पर कुछ भी नहीं है।[7] उसी श्रुति के भाव को स्पष्ट दिखलाने के लिये यहाँ ‘परतः’ का ‘अत्यन्त पर’ अर्थ किया गया है। आत्मा सबका आधार, कारण, प्रकाशक और प्रेरक तथा सूक्ष्म, व्यापक, श्रेष्ठ और बलवान् होने के कारण उसे ‘अत्यन्त पर’ कहना उचित ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/60
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आत्मानँ रथिनं विद्धि शरीरँ रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्दि मन: प्रग्रमेव च्।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँस्तेषु गोचरान्। आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिण:।।(कठोपनिषद् 1|3| 3-4)
'तू आत्मा को रथी और शरीर को रथ ज्ञान तथ बुद्धि को सारथि और मन को मन को लगाम समझ। विवेकी पुरुष इन्द्रियों को घोड़े बतलाते हैं और विषयों को उनके मार्ग कहते हैं तथा शरीर, इन्द्रिय एवं मन से युक्त आत्मा को 'भोक्ता' कहते हैं।'
- ↑ यस्त्वविज्ञानवान् भवत्युयुक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रिययाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथे।
यस्त्वविज्ञानवान भवत्यमनस्क: सदाशुचि। न स तत्पदमाप्नोति सँसारं चाधिगच्छति।। (कठोपनिषद् 1|3|5,7) 'किंतु जो बुद्धिरूपी सारथि सर्वदा अविवेकी और असंयत चित्त से युक्त होता है, उसके अधीन इन्द्रियाँ वैसे ही नहीं रहतीं, जैसे सारथि के अधीन दुष्ट घोड़े। और जो (बुद्धिरूप सारथि) जिसका मन निगृहीत नहीं है' जिसका मन निगृहीत नहीं है और जो सदा अपवित्र है, वह उस पद को प्राप्त नहीं कर सकता है वरं वह संसार को ही प्राप्त होता है।' - ↑
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथे:।।
यस्तु विज्ञावान् भवति समनस्क: सदा शुचि:। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भयो न जायते।। (कठोपनिषद 1|3|6|6,8)'परन्तु जो बुद्धि रूपी सारथि विवेकशील (कुशल) तथा समाहितचित्त है, उसके अधीन इन्द्रियाँ वैसे ही रहती हैं, जैसे सारथि के अधीन उत्तम शिक्षित घोड़े। तथा जो विज्ञानवान् है, निगृहीत मन वाला है और सदा पवित्र है, वह उस पद को प्राप्त कर लेता है, जहाँ से फिर वह उतपन्न नहीं होता यानी पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता।'
- ↑ 6/6
- ↑ इंद्रियेभ्य: परा ह्यार्था आर्थेपरं मन: । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् पर:॥
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर:। पुरुषान्न परं किंचित सा काष्ठा सा परा गति:॥ (कठोपनिषद् 1।3।10-11)
'इंद्रियों की अपेक्षा उनके अर्थ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधरूप तंमात्राएँ) पर (श्रेष्ठ, सूक्ष्म और बलवान) हैं, अर्थों से मन पर है, मन से बुद्धि पर है और बुद्धि से भी महान आत्मा (महत्तत्त्व समष्टि-बुद्धि) पर है। महत्तत्त्व से अव्यक्त (मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्त से पुरुष पर है। पुरुष से पर और कुछ नहीं है, वही पराकाष्ठा (अंतिम अवधि) है और वही परम गति है।'
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