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तृतीय अध्याय
जालसाज व्यापारी जगमोहन की सलाह से वे सब मिलकर उसे अपने अफसर सहकारी मन्त्री चंचल सिंह के पास ले गये; ठग व्यापारी ने उसको खूब प्रलोभन दिया, फलतः चंचलसिंह भी जगमोहन की मीठी-मीठी बातों में फँस गया। चंचलसिंह उसे अपने उच्च अधिकारी ज्ञानसागर के पास ले गया। ज्ञानसागर था तो बुद्धिमान: परंतु वह कुछ दुर्बल हृदय का था, ठीक मीमांसा करके किसी निश्चय पर नहीं पहुँचता था। इसी से वह अपने सहकारी चंचलसिंह और दसों जिलाधीशों की बातों में आ जाया करता था। वे इससे अनुचित लाभ भी उठाते थे। आज चंचलसिंह और जिलाधीशों की बातों पर विश्वास करके वह भी ठग व्यापारी के जाल में फँस गया। उसने लाइसेंस देना स्वीकार कर लिया, पर कहा कि महाराज चेतनसिंह जी की मंजूरी बिना सारे राज्य के लिये लाइसेंस नहीं दिया जा सकता।
आखिर ठग व्यापारी की सलाह से वह उसे राजा के पास ले गया। ठग बड़ा चतुर था। उसने राजा को बड़े-बड़े प्रलोभन दिये। राजा भी लोभ में आ गये और उन्होंने जगमोहन को अपने राज्य में सर्वत्र अबाध व्यापार चलाने और कोठियाँ खोलने की अनुमति दे दी। जगमोहन ने जिला-अफसरों तथा दोनों मन्त्रियों को कुछ दे-लेकर सन्तुष्ट कर लिया और सारे राज्य में अपना जाल फेला दिया। जब सर्वत्र उसका प्रभाव फेल गया, तब तो वह बिना बाधा प्रजा को लूटने लगा। जिलाधीशों सहित दोनों मन्त्री लालच में पड़े हुए थे ही, राजा को लूट का हिस्सा देकर उसने अपने वश में कर लिया। और छल-कौशल और मीठी-मीठी चिकनी-चुपड़ी बातों में राजा को तथा विषयलोलुप सब अफसरों को कुमार्गगामी बनाकर उसने सबको शक्तिहीन, कर्मण्य और दुर्व्यसनप्रिय बना दिया और चुपके-चुपके तेजी के साथ अपना बल बढ़ाकर उसने सारे राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार राजा का सर्वस्व लूटकर अन्त में उन्हें पकड़कर नजरकैद कर दिया।
यह दृष्टान्त है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये। राजा चेतनसिंह ‘जीवात्मा’ है, प्रधानमन्त्री ज्ञानसागर ‘बुद्धि’ है, सहकारी मन्त्री चंचलसिंह ‘मन’ है, मध्यपुरी राजधानी ‘हृदय’ है। दसों जिलाधीश ‘दस इन्द्रियाँ’ हैं, दस जिले इन्द्रियों के ‘दस स्थान’ हैं, ठगों का सरदार जगमोहन ‘काम’ है। विषयभोगों के सुख का प्रलोभन ही सबको लालच देना है। विषयभोगों में फँसाकर जीवात्मा को सच्चे सुख के मार्ग से भ्रष्ट कर देना ही उसे लूटना है और उसके ज्ञान को आवृत करके सर्वथा मोहित कर देना और मनुष्य-जीवन के परम लाभ से वंचित रहने को बाध्य कर डालना ही नजरकैद करना है। अभिप्राय यह है कि यह कल्याण विरोधी दुर्जय शत्रु काम, इन्द्रिय, मन और बुद्धि को विषयभोगरूप मिथ्या सुख का प्रलोभन देकर उन सब पर अपना अधिकार जमाकर मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा विषय-सुखरूप लोभ से जीवात्मा के ज्ञान को ढककर उसे मोहमय संसार रूप कैदखाने में डाल देता है। और परमात्मा की प्राप्तिरूप वास्तविक धन से वंचित करके उसके अमूल्य मनुष्य जीवन का नाश कर डालता है।
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