तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार काम के द्वारा ज्ञान को आवृत बतलाकर अब उसे मारने का उपाय बतलाने के उद्देश्य से उसके वास स्थान और उसके द्वारा जीवात्मा के मोहित किये जाने का प्रकार बतलाते हैं-
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। 40 ।।
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वास स्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।। 40 ।।
प्रश्न- ‘इन्द्रिय, मन और बुद्धि- ये सब इस ‘काम’ के वासस्थान कहे जाते हैं’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि मन, बुद्धि और इन्द्रिय मनुष्य के वश में न रहने के कारण उन पर यह ‘काम’ अपना अधिकार जमाये रखता है। अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों में से इस कामरूप वैरी को शीघ्र ही निकाल देना या वहीं रोककर उसे नष्ट कर देना चाहिये; नहीं तो यह घर में घुसे हुए शत्रु की भाँति मनुष्य जीवनरूप अमूल्य धन को नष्ट कर देगा।
प्रश्न- यह ‘काम’ मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि यह ‘काम’ मनुष्य के मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रविष्ट होकर उसकी विवेक शक्ति को नष्ट कर देता है; जिससे मनुष्य का अधःपतन हो जाता है। इसलिये शीघ्र ही सचेत हो जाना चाहिये। यह बात एक कल्पित दृष्टान्त के द्वारा समझायी जाती है- चेतनसिंह नाम के एक राजा थे। उनके प्रधानमन्त्री का नाम था ज्ञानसागर। प्रधानमन्त्री के अधीनस्थ एक सहकारी मन्त्री था, उसका नाम था चंचल सिंह। राजा अपने मन्त्री और सहकारी मन्त्री सहित अपनी राजधानी मध्यपुरी में रहते थे। राज्य दस जिलों में बँटा हुआ था और प्रत्येक जिले में एक जिलाधीश अधिकारी नियुक्त था। राजा बहुत ही विचारशील, कर्मप्रवण और सुशील थे। उनके राज्य में सभी सुखी थे। राज्य दिनोदिन उन्नत हो रहा था। एक समय उनके राज्य में जगमोहन नामक एक ठगों का सरदार आया। वह बड़ा ही कुचक्री और जालसाज था, अंदर कपटरूप जहर से भरा होने पर भी उसकी बोली बहुत मीठी थी। वह जिससे बात करता उसी को मोह लेता। वह आया एक व्यापारी के वेष में उसने जिलाधीशों से मिलकर उनसे राज्यभर में अपना व्यापार चलाने की अनुमति माँगी। जिलाधीशों को काफी लालच दिया। वे लालच में तो आ गये, परंतु अपने अफसरों की अनुमति बिना कुछ कर नहीं सकते थे।
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