तृतीय अध्याय
प्रश्न- काम को ‘महाशनः’ यानी बहुत खाने वाला कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे यह दिखलाया है कि यह काम भोगों को भोगते-भोगते कभी तृप्त नहीं होता। जैसे घृत और ईधन से अग्नि बढ़ती है, उसी प्रकार मनुष्य जितने ही अधिक भोग भोगता है, उतनी ही अधिक उसकी भोग-तृष्णा बढ़ती जाती है। इसलिये मनुष्य को यह कभी न समझना चाहिये कि भोगों का प्रलोभन देकर मैं साम और दान नीति से कामरूप वैरी पर विजय प्राप्त कर लूँगा, इसके लिये तो दण्डनीतिका ही प्रयोग करना चाहिये।
प्रश्न- काम को ‘महापाप्मा’ यानी बड़ा पापी कहने का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि सारे अनर्थों का कारण यह काम ही है। मनुष्य को बिना इच्छा पापों में नियुक्त करने वाला न तो प्रारब्ध है और न ईश्वर ही है, यह काम ही इस मनुष्य को नाना प्रकार के भोगों में आसक्त करके उसे बलात् पापों प्रवृत्त कराता है; इसलिये यह महान् पापी है।
प्रश्न- इसी को तू इस विषय में वैरी जान, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो हमें जबरदस्ती ऐसी स्थिति में ले जाय कि जिसका परिणाम महान् दुःख या मृत्यु हो, उसको अपना शत्रु समझना चाहिये और यथासम्भव शीघ्र-से-शीघ्र उसका नाश कर डालना चाहिये। यह ‘काम’ मनुष्य उसकी इच्छा के बिना ही जबरदस्ती पापों में लगाकर उसे जन्म-मरणरूप और नरक-भोगरूप महान् दुःखों का भागी बनाता है। अतः कल्याण-मार्ग में इसी को अपना महान् शत्रु समझना चाहिये। ईश्वर तो परम दयालु और प्राणियों के सुहृद् हैं, वे किसी को पापों में कैसे नियुक्त कर सकते हैं और प्रारब्ध पूर्वकृत कर्मों के भोग का नाम है, उसमें किसी को पापों में प्रवृत्त करने की शक्ति नहीं है। अतः पापों में प्रवृत्त करने वाला वैरी दूसरा कोई नहीं है, यह ’काम’ ही है।
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