श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- चौंतीसवें श्लोक में यह बात कही गयी थी कि प्रत्येक इन्द्रिय के विषयों में रहने वाले राग और द्वेष ही इस मनुष्य को लूटने वाले डाकू हैं; उन्हीं दोनों के स्थूलरूप काम-क्रोध हैं- यह भाव दिखलाने के लिये तथा इन दोनों में भी ‘काम’ प्रधान है, क्योंकि यह राग का स्थूल रूप है और इसी से ‘क्रोध’ की उत्पत्ति होती है[1]- यह दिखलाने के लिये ‘कामः’ और क्रोधः’, इन दोनों पदों के साथ ‘एषः’ पद का प्रयोग किया गया है। काम की उत्पत्ति राग से होती है, इस कारण ‘रजोगुणसमुद्भवः’ विशेषण ‘कामः’ पद से ही सम्बन्ध रखता है। प्रश्न- यदि ‘काम’ और ‘क्रोधः’ दोनों ही मनुष्य के शत्रु हैं तो फिर भगवान् ने पहले दोनों के नाम लेकर फिर अकेले काम को ही शत्रु समझने के लिये कैसे कहा? उत्तर- पहले बतलाया जा चुका है कि काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। अतः काम के नाश के साथ ही उसका नाश अपने-आप ही हो जाता है। इसलिये भगवान् ने इस प्रकरण में इसके बाद केवल ‘काम’ का ही नाम लिया है। परंतु कोई यह न समझ ले कि पापों का हेतु केवल काम ही है, क्रोध का उनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है; इसलिये प्रकरण के आरम्भ में काम के साथ क्रोध को भी गिना दिया है। प्रश्न- काम उत्पत्ति रजोगुण से होती है या राग से? उत्तर- रजोगुण से राग की वृद्धि होती है और राग से रजोगुण की। अतः इन दोनों का एक ही स्वरूप माना गया है।[2] इसलिये काम की उत्पत्ति के दोनों ही कारण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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