श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इस वाक्य में परधर्म और स्वधर्म की तुलना करते समय परधर्म के साथ तो ‘सु-अनुष्ठित’ विशेषण दिया गया है और स्वधर्म के साथ ‘विगुण’ विशेषण दिया गया है। अतः प्रत्येक विशेषण का विरोधी भाव उनके साथ अधिक समझ लेना चाहिये अर्थात् परमधर्म को तो सदगुण-सम्पन्न और ‘सु-अनुष्ठित’ समझना चाहिये तथा स्वधर्म को, विगुण और अनुष्ठान की कमी रूप दोषयुक्त समझ लेना चाहिये। साथ में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सद्गुणों की बहुलता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास–आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है। इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय के कर्म अधिक गुणयुक्त हैं। अतः ऐसा समझने से यहाँ यह भाव निकलता है कि जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किंतु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हो, दूसरों के लिये ही विहित हों वैसे कर्मों का वाचक यहाँ ‘स्वनुष्ठितात्’ विशेषण के सहित ‘परधर्मात्’ पद है। उस परधर्म की अपेक्षा गुण-रहित स्वधर्म को अति उत्तम बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे देखने में कुरूप और गुणहीन होने पर भी स्त्री के लिये अपने पति का सेवन करना ही कल्याणप्रद है, उसी प्रकार देखने में सद्गुणों से हीन होने पर तथा अनुष्ठान में अंगवैगुण्य हो जाने पर भी जिसके लिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है फिर जो स्वधर्म सर्वगुण सम्पन्न है और जिसका सांगोपांग पालन किया जाता है, उसके विषय में तो कहना ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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