तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार सबको प्रकृति के अनुसार कर्म करने पड़ते हैं, तो फिर कर्मबन्धन से छूटने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये? इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।। 34 ।।
इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं।।34।।
प्रश्न- यहाँ ‘अर्थे’ पद से सम्बन्ध रखने वाले ‘इन्द्रियस्य’ पद का दो बार प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर- श्रोतादि ज्ञानेन्द्रिय, वाणी आदि कर्मेन्द्रिय और अन्तःकरण- इन सबका ग्रहण करने के लिये एवं उनमें से प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में अलग-अलग राग-द्वेष की स्थिति दिखलाने के लिये यहाँ ‘अर्थे’ पद से सम्बन्ध रखने वाले ‘इन्द्रियस्य’ पद का दो बार प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण के सहित समस्त इन्द्रियों के जितने भी भिन्न-भिन्न विषय हैं, जिनके साथ इन्द्रियों का संयोग-वियोग होता रहता है, उन सभी विषयों में राग और द्वेष दोनों ही अलग-अलग छिपे रहते हैं।
प्रश्न- यहाँ यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘इन्द्रिय के अर्थ में इन्द्रिय के राग-द्वेष छिपे रहते हैं’, तो क्या हानि है?
उत्तर- ऐसी क्लिष्ट कल्पना कर लेने पर भी इस अर्थ से भाव ठीक नहीं निकलता। क्योंकि इन्द्रियाँ भी अनेक हैं और उनके विषय भी अनेक हैं; फिर एक ही इन्द्रिय के विषय में एक ही इन्द्रिय के राग-द्वेष स्थित हैं, यह कहना कैसे सार्थक हो सकता है? इसलिये ‘इन्द्रियस्य-इन्द्रियस्य’ अर्थात् ‘सर्वेन्द्रियाणाम्’- इस प्रकार प्रयोग मानकर ऊपर बतलाया हुआ अर्थ मानना ही ठीक मालूम होता है।
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