तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- इस कर्मासक्त मनुष्यों की और सांख्ययोगी की स्थिति का भेद बतलाकर अब आत्मतत्त्व को पूर्णतया समझाने वाले महापुरुष के लिये यह प्रेरण की जाती है कि वह कर्मासक्त अज्ञानी मनुष्यों को विचलित न करे-
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्सनविदो मन्दान्कृत्सनविन्न विचालयेत्।। 29 ।।
प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्द बुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ।।29।।
प्रश्न- ‘प्रकृतेः गुणसम्मूढाः’ यह विशेषण किस श्रेणी के मनुष्यों का लक्ष्य कराता है तथा वे गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- पचीसवें और छब्बीसवें श्लोकों में जिन कर्मासक्त अज्ञानियों की बात कही गयी है, यहाँ ‘प्रकृतेः गुणसम्मूढाः’ पद उन्हीं इस लोक और परलोक के भोगों की कामना से श्रद्धा और आसक्तिपूर्वक कर्मों में लगे हुए सत्त्वमिश्रित रजोगुणी सकामी कर्मठ मनुष्यों का लक्ष्य कराने वाला है; क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधन करने वाले जो शुद्ध सात्त्विक मनुष्य हैं, वे प्रकृति के गुणों से मोहित नहीं हैं और निषिद्ध कर्म करने वाले तामसी मनुष्य हैं, उनकी शास्त्रों में श्रद्धा न रहने के कारण उनका न तो विहित कर्मों में प्रेम है और न वे विहित कर्म करते ही हैं। इसलिये उन तामसी मनुष्यों को कर्मों से विचलित न करने के लिये कहना नहीं बनता, बल्कि उनसे तो शास्त्रों में श्रद्धा करवाकर निषिद्ध कर्म छुड़वाने और विहित कर्म करवाने की आवश्यकता होती है। तथा वे सकाम मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि गुणों से मोहित रहने के कारण उन लोगों को प्रकृति से अतीत सुख का कुछ भी ज्ञान नहीं है, वे सांसारिक भोगों को ही सबसे बढ़कर सुखदायक समझते हैं; इसीलिये वे गुणों के कार्यरूप भोगों में और उन भोगों की प्राप्ति के उपायभूत कर्मों में ही लगे रहते हैं, वे उन गुणों के बन्धन से छूटने की इच्छा या चेष्टा करते ही नहीं।
|