|
तृतीय अध्याय
प्रश्न- ‘अहकांरविमूढात्मा’ कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर- प्रकृति के कार्यरूप उपर्युक्त बुद्धि, अहंकार मन, महाभूत, इन्द्रियाँ और विषय- इन तेईस तत्त्वों के संघातरूप शरीर में जो अहंता है- उसमें जो दृढ़ आत्मभाव है, उसका नाम अहंकार है। इस अनादिसिद्ध अहंकार के सम्बन्ध से जिसका अन्तःकरण अत्यन्त मोहित हो रहा है, जिसकी विवेकशक्ति लुप्त हो रही है एवं इसी कारण जो आत्म-अनात्म वस्तु का यथार्थ विवेचन करके अपने को शरीर से भिन्न शुद्ध आत्मा या परमात्मा का सनातन अंश नहीं समझता- ऐसे अज्ञानी मनुष्य का वाचक यहाँ ‘अहकांरविमूढात्मा’ पद है। इसलिये यह ध्यान रहे कि आसक्तिरहित विवेकशील कर्मयोग का साधन करने वाले साधक का वाचक ‘अहंकारविमूढात्मा’ पद नहीं है; क्योंकि उसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित नहीं है, बल्कि वह तो अहंकार का नाश करने की चेष्टा में लगा हुआ है।
प्रश्न- उपर्युक्त अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान लेता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि वास्तव में आत्मा का कर्मों से सम्बन्ध न होने पर भी अज्ञानी मनुष्य तेईस तत्त्वों के इस संघात में आत्माभिमान करके उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों से अपना सम्बन्ध स्थापन करके अपने को उन कर्मों का कर्ता मान लेता है- अर्थात् मैं निश्चय करता हूँ, मैं संकल्प करता हूँ, मैं सुनता हूँ, देखता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, सोता हूँ, चलता हूँ इत्यादि प्रकार से हरेक क्रिया को अपने द्वारा की हुई समझता है। इसी कारण उसका कर्मों से बन्धन होता है और उसको उन कर्मों का फल भोगने के लिये बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार चक्र में घूमना पड़ता है।
|
|