श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
उत्तर- अर्जुन का रथ बहुत ही विशाल और उत्तम था। वह सोने से मँढ़ा हुआ बड़ा ही तेजोमय, अत्यन्त प्रकाशयुक्त, खूब मजबूत, बहुत बड़ा और परम सुन्दर था। उस पर अनेकों पताकाएँ फहरा रही थीं, पताकाओं में घुँघरू लगे थे। बड़े ही दृढ़ और विशाल पहिये थे। ऊँची ध्वजा बिजली-सी चमक रही थी, उसमें चन्द्रमा और तारों के चिह्न थे और उस पर श्रीहनुमान जी विराजमान थे। ध्वजा के सम्बन्ध में संजय ने दुर्योधन को बतलाया था कि ‘वह तिरछे और ऊपर सब ओर एक योजन तक फहराया करती है। जैसे आकाश में इन्द्रधनुष अनेकों प्रकाशयुक्त विचित्र रंगों का दीखता है, वैसे ही उस ध्वजा में रंग दीख पड़ते हैं। इतनी विशाल और फैली हुई होने पर भी न तो उसमें बोझ है और न वह कहीं रुकती या अटकती ही है। वृक्षों के झुंडों में वह निर्बाध चली जाती है, वृक्ष उसे छू नहीं पाते।’ चार बड़े सुन्दर, सुसज्जित, सुशिक्षित, बलवान् और तेजी से चलने वाले सफेद दिव्य घोड़े उस रथ में जुते हुए थे। ये चित्ररथ गन्धर्व के दिये हुए सौ दिव्य घोड़ों में से थे। इनमें से कितने भी क्यों ना मारे जायँ, ये संख्या में सौ-के-सौ बने रहते थे; कम न होते थे ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सब स्थानों में जा सकते थे। यही बात रथ के लिये भी थी।[1] खाण्डव वन-दाह के समय अग्निदेव ने प्रसन्न होकर यह रथ अर्जुन को दिया था।[2] ऐसे महान् रथ पर विराजित भगवान् श्रीकृष्ण और वीरवर अर्जुन ने जब भीष्मपितामह सहित कौरव-सेना के द्वारा बजाये हुए शंखों और अन्यान्य रणवाद्यों की ध्वनि सुनी, तब इन्होंने भी युद्धारम्भ की घोषण करने के लिये अपने-अपने शंख बजाये। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के ये शंख साधारण नहीं; अत्यन्त विलक्षण, तेजोमय और अलौकिक थे, इसी से इनको दिव्य बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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