श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- सृष्टि-संचालन को सुरक्षित बनाये रखना, उसकी व्यवस्था में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न करके उसमें सहायक बनना लोकसंग्रह कहलाता है। अर्थात् समस्त प्राणियों के भरण-पोषण और रक्षण का दायित्व मनुष्य पर है; अतः अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार कर्तव्य कर्मों का भलीभाँति आचरण करके जो दूसरे लोगों को अपने आदर्श के द्वारा दुर्गुण-दुराचार से हटाकर स्वधर्म में लगाये रखना है- यही लोकसंग्रह है। यहाँ अर्जुन को लोकसंग्रह की ओर देखते हुए भी कर्म करना उचित बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परम श्रेयरूप परमेश्वर की प्राप्ति के लिये तो आसक्ति से रहित होकर कर्म करना उचित है ही, इसके सिवा लोकसंग्रह के लिये भी मनुष्य को कर्म करते रहना उचित है; इसलिये तुम्हें लोकसंग्रह को देखकर अर्थात् यदि मैं कर्म न करूँगा तो मुझे आदर्श मानकर मेरा अनुकरण करके दूसरे लोग भी अपने कर्तव्य का त्याग कर देंगे, जिससे सृष्टि में विप्लव हो जायगा और इसकी व्यवस्था बिगड़ जायगी; अतः सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, यह सोचकर भी कर्म करना ही उचित है, उसका त्याग करना तुम्हारे लिये किसी प्रकार भी उचित नहीं है। प्रश्न- लोकसंग्रहार्थ कर्म परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी पुरुष द्वारा ही हो सकते हैं या साधक भी कर सकता है? उत्तर- ज्ञानी के लिये अपना कोई कर्तव्य नहीं होता, इससे उसके तो सभी कर्म लोक-संग्रहार्थ ही होते हैं; परंतु ज्ञानी को आदर्श मानकर साधक भी लोकसंग्रहार्थ कर्म कर सकता है। अवश्य ही वह पूर्णरूप से नहीं कर सकता; क्योंकि जब तक अज्ञान की पूर्णतया निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक किसी-न-किसी अंश में स्वार्थ बना ही रहता है और जब तक स्वार्थ का तनिक भी सम्बन्ध है, तब तक पूर्ण रूप से केवल लोकसंग्रार्थ कर्म नहीं हो सकता। प्रश्न- जब ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं है और उसकी दृष्टि में कर्म का कोई महत्त्व ही नहीं है, तब उसका लोकसंग्रहार्थ कर्म करना केवल लोगों को दिखलाने के लिये नहीं होता होगा? उत्तर- ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य न होने पर भी वह जो कुछ कर्म करते है, केवल लोगों को दिखाने के लिये नहीं करता, मन में कर्म का कोई महत्त्व न हो और केवल ऊपर से लोगों को दिखलाने भर के लिये किया जाय, वह तो एक प्रकार का दम्भ है। ज्ञानी में दम्भ रह नहीं सकता। अतएव वह जो कुछ करता है, लोकसंग्रहार्थ आवश्यक और महत्त्वपूर्ण समझकर ही करता है; उसमें न दिखाऊपन है, न आसक्ति है, न कामना है और न अहंकार ही है। ज्ञानी के कर्म किस भाव से होते हैं, इसको कोई दूसरा नहीं जान पाता, इसी से उसके कर्मों में अत्यन्त विलक्षणता मानी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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