तृतीय अध्याय
प्रश्न- इस सृष्टिचक्र के अनुकूल न बरतने वाले मनुष्य को ‘इन्द्रियाराम’ और ‘अघायु’ कहने का तथा उसके जीवन को व्यर्थ बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- अपने कर्तव्य का पालन न करना ही उपर्युक्त सृष्टिचक्र के अनुकूल न चलना है। अपने कर्तव्य को भूलकर जो मनुष्य विषयों में आसक्त होकर निरन्तर इन्द्रियों के द्वारा भोगों में ही रमण करता है, जिस किसी प्रकार से भोगों के द्वारा इन्द्रियों को तृप्त करना ही जिसका लक्ष्य बन जाता है, उसे ‘इन्द्रियाराम’ कहा गया है।
इस प्रकार अपने कर्तव्य का त्याग कर देने वाला मनुष्य भोगों की कामना से प्रेरित होकर इच्छाधारी हो जाता है, अपने स्वार्थ में रत रहने के कारण वह दूसरे के हित-अहित की कुछ भी परवा नहीं करता- जिससे दूसरों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और सृष्टि की व्यवस्था में विघ्न उपस्थित हो जाता है। ऐसा होने से समस्त प्रजा को दुःख पहुँचता है। अतएव अपने कर्तव्य का पालन न करके सृष्टि में दुर्व्यवस्था उत्पन्न करने वाला मनुष्य बड़े भारी दोष का भागी होता है तथा वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये जीवनभर अन्यायपूर्वक धन और ऐश्वर्य का संग्रह करता रहता है, इसलिये उसे ‘अघायु’ कहा गया है। वह मनुष्य जीवन के प्रधान लक्ष्य से - संसार में अपने कर्तव्यपालन के द्वारा सब जीवों को सुख पहुँचाते हुए परम कल्याण स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त कर लेना - इस उद्देश्य से सर्वथा वंचित रह जाता है और अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को विषयभोगों में रत रहकर व्यर्थ खोता रहता है; इसलिये उसके जीवन को व्यर्थ बतलाया गया है।
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