तृतीय अध्याय
प्रश्न- ‘वेद को अक्षर से उत्पन्न होने वाला’ कहने का क्या अभिप्राय है; क्योंकि वेद तो अनादि माने जाते हैं?
उत्तर- परब्रह्म परमेश्वर नित्य हैं, इस कारण उनका विधानरूप वेद भी नित्य है- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। अतः यहाँ वेद को परमेश्वर से उत्पन्न बतलाने का यह अभिप्राय नहीं है कि वेद पहले नहीं था और पीछे से उत्पन्न हुआ है, किंतु यह अभिप्राय है कि सृष्टि के आदिकाल में परमेश्वर से वेद प्रकट होता है और प्रलयकाल में उन्हीं में विलीन हो जाता है। वेद अपौरुषेय है अर्थात् किसी पुरुष का बनाया हुआ शास्त्र नहीं है। यह भाव दिखलाने के लिये ही यहाँ वेद को अक्षर से यानी अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है। अतएव इस कथन से वेद की अनादिता ही सिद्ध की गयी है। इसी भाव से सत्रहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भी वेद को परमात्मा से उत्पन्न बतलाया गया है।
प्रश्न- ‘सर्वगतम्’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद यहाँ किसका वाचक है और हेतुवाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके उसे यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘सर्वगतम्’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद यहाँ सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर का वाचक है और ‘तस्मात्’ पद के प्रयोगपूर्वक उस परमेश्वर को यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि समस्त यज्ञों की विधि जिस वेद में बतलायी गयी है, वह वेद भगवान् की वाणी है। अतएव उसमें बतलायी हुई विधि से किये जाने वाले यज्ञ में समस्त यज्ञों के अधिष्ठाता सर्वव्यापी परमेश्वर सदा ही स्वयं विराजमान रहते हैं, अर्थात् यज्ञ साक्षात् परमेश्वर की ‘मूर्ति’ है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान् के आज्ञानुसार अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये।
|