श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- सृष्टि में जितने भी जीव हैं, उन सबमें मनुष्य ही ऐसा है जिस पर सब जीवों के भरण-पोषण और संरक्षण का दायित्व है। मनुष्य अपने इस दायित्व को समझकर मन, वाणी, शरीर से समस्त जीवों के जीवनधारणादि रूप हित के लिये जो क्रियाएँ करता है, उन क्रियाओं से सम्पादित होने वाले सत्कर्म को यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ में हवन, दान, तप और जीविका आदि सभी कर्तव्य-कर्मों का समावेश हो जाता है। यद्यपि इनमें हवन की प्रधानता होने से शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि अग्नि में आहुत देने पर वृष्टि होती है और उस वृष्टि से अन्न की उत्पत्ति के द्वारा प्रजा की उत्पत्ति होती है; किंतु ‘यज्ञ’ शब्द से यहाँ केवल हवन ही विवक्षित नहीं है। लोकोपकारार्थ होने वाली क्रियाओं से सम्पादित सत्कर्म मात्र का नाम यज्ञ है। ‘वृष्टि यज्ञ से होती है’ इस वाक्य का यह भाव समझना चाहिये कि मनुष्यों के द्वारा किये हुए कर्तव्य-पालन रूप यज्ञ से ही वृष्टि होती है। हम कहते हैं कि अमुद देश में यज्ञ नहीं होते, वहाँ वर्षा क्यों होती है? इसका उत्तर यह है कि वहाँ भी किसी-न-किसी रूप में लोकोपकारार्थ सत्कर्म होते ही हैं। इसके अतिरिक्त एक बात और भी है कि सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ होते रहे हैं। उन यज्ञों के फलस्वरूप वहाँ वृष्टि होती है और जब तक पूर्वार्जित यज्ञ-समूह संचित रहेगा- उसकी समाप्ति नहीं होगी- तब तक वृष्टि होती रहेगी; परंतु मनुष्य यदि यज्ञ करना बंद कर देगा तो वह संचय धीरे-धीरे समाप्त हो जायगा और उसक बाद वृष्टि नहीं होगी, जिसके फलस्वरूप सृष्टि के जीवों का शरीर धारण और भरण-पोषण कठिन हो जायगा; इसलिये कर्तव्यपालन रूप यज्ञ मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। प्रश्न- यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होता है; इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि भिन्न-भिन्न मनुष्यों के लिये उनके वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के भेद जो नाना प्रकार के यज्ञ शास्त्र में बतलाये गये हैं, वे सब मन, इन्द्रिय या शरीर की क्रिया द्वारा ही सम्पादित होते हैं। बिना शास्त्रविहित क्रिया के किसी भी यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। चौथे अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में इसी भाव को स्पष्ट किया गया है। प्रश्न- ‘ब्रह्मोद्भवम्’ पद में ‘ब्रह्म’ शब्द का क्या अर्थ है और कर्म को उससे उत्पन्न होने वाला बतलाने का क्या भाव है? उत्तर- गीता में ‘ब्रह्म’ शब्द का प्रयोग प्रकरणानुसार ‘परमात्मा’[1], ‘प्रकृति’[2], ‘ब्रह्मा’[3], ‘वेद’[4] और ‘ब्राह्मण’[5]- इन सबके अर्थ में हुआ है। यहाँ कर्मों की उत्पत्ति का प्रकरण है और विहित कर्मों का ज्ञान मनुष्य को वेद या वेदानुकूल शास्त्रों से ही होता है। इसलिये यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ वेद समझना चाहिये। इसके सिवाय इस ब्रह्म को अक्षर से उत्पन्न बतलाया गया है, इसलिये भी ब्रह्म का अर्थ वेद मानना ही ठीक है; क्योंकि परमात्मा तो स्वयं अक्षर है और प्रकृति अनादि है, अतः उनको अक्षर से उत्पन्न कहना नहीं बनता और ब्रह्मा तथा ब्राह्मण का यहाँ प्रकरण नहीं है। कर्मों को वेद से उत्पन्न बतलाकर यहाँ यह भाव दिखलाया है कि किस मनुष्य के लिये कौन-सा कर्म किस प्रकार करना कर्तव्य है- यह बात वेद और शास्त्रों द्वारा समझकर जो विधिवत् क्रियाएँ वेद से या वेदानुकूल शास्त्रों से ही जानी जाती हैं। अतः यज्ञ सम्पादन करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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