श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘यज्ञ’ शब्द के द्वारा प्रधान रूप से पंचमहायज्ञ का लक्ष्य कराते हुए भगवान् उन सभी शास्त्रीय सत्कर्मों की बात कहते हैं जो क्रियाओं से सम्पादित होते हैं। सृष्टि कार्य के सुचारु रूप से संचालन में और सृष्टि के जीवों का भली-भाँति भरण-पोषण होने में पाँच श्रेणी के प्राणियों का परस्पर सम्बन्ध है- देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और अन्य प्राणी। इन पाँचों के सहयोग से ही सबकी पुष्टि होती है। देवता समस्त संसार को इष्ट भोग देते हैं, ऋषि-महर्षि सबको ज्ञान देते हैं, पितरलोग सन्तान का भरण-पोषण करते और हित चाहते हैं, मनुष्य कर्मों के द्वारा सबकी सेवा करते हैं और पशु, पक्षी, वृक्षादि सबके सुख के साधन रूप में अपने को समर्पित किये रहते हैं। इन पाँचों में योग्यता, अधिकार और साधन सम्पन्न होने के कारण सबकी पुष्टि का दायित्व मनुष्य पर है। इसी से मनुष्य शास्त्रीय कर्मों के द्वारा सबकी सेवा करता है। पंच महायज्ञ से यहाँ लोकसेवा रूप शास्त्रीय सत्कर्म ही विवक्षित है।[1] मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह जो कुछ भी कमावे, उसमें इन सबका भाग समझे; क्योंकि वह सबकी सहायता और सहयोग से ही कमाता-खाता है। इसीलिये जो यज्ञ करने के बाद बचे हुए अन्न को अर्थात् इन सबको उनका प्राप्य भाग देकर उससे बचे हुए अन्न को खाता है, उसी को शास्त्रकार अमृताशी (अमृत खाने वाला) बतलाते हैं। जो ऐसा नहीं करता, दूसरों का स्वत्व मारकर केवल अपने लिये ही कमाता-खाता है, वह पाप खाता है। विभिन्न क्रियाओं से उपार्जित अन्न का भोजन उसके पकने पर ही होता है और उस अन्न की अग्नि में आहुति दिये बिना दैवयज्ञ और बलिवैश्वदेव सिद्ध नहीं होते, इसलिये यहाँ हवन और बलिवैश्वदेव को प्रधानता दी गयी है। परंतु केवल हवन-बलिवैश्वदेव रूप कर्म से ही पंचमहायज्ञों की पूर्ति नहीं हो जाती। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाला वास्वत में वही है, जो सबको अपनी कमाई का हिस्सा यथायोग्य देकर फिर बचे हुए को स्वयं काम में लाता है। ऐसे स्वार्थ त्यागी कर्मयोगी का वाचक यहाँ ‘यज्ञशिष्टाशिनः’ पद है। प्रश्न- ‘सन्तः’ पद यहाँ साधकों का वाचक है या सिद्धों का? उत्तर- साधकों का वाचक है; क्योंकि सिद्ध पुरुषों में पाप नहीं होते और यहाँ पापों से छूटने की बात कही गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पाठो होमश्चातिथीनां सपर्या तर्पणं बलिः। अमी पण्च महायज्ञा ब्रह्मयज्ञादिनामकाः।।
सत्-शास्त्रों का पाठ (ब्रह्मयज्ञ या ऋषियज्ञ), हवन (देवयज्ञ), अतिथियों की सेवा (मनुष्ययज्ञ), श्राद्ध और तर्पण (पितृयज्ञ), प्राणिमात्र के लिये आहार देकर उनकी सेवा करना (भूतयज्ञ) - ये पाँच महायज्ञ, ब्रह्मयज्ञ आदि नामों से प्रसिद्ध हैं।)
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