श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इस वाक्य से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि जो कर्म मनुष्य के कर्तव्यरूप यज्ञ की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये ही अनासक्त भाव से किये जाते हैं, किसी फल की कामना से नहीं किये जाते, वे शास्त्रविहित कर्म बन्धनकारक नहीं होते; बल्कि उन कर्मों से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। किन्तु ऐसे लोकोपकारक कर्मों के अतिरिक्त जितने भी पुण्यपापरूप कर्म हैं, वे सब पुनर्जन्म के हेतु होने से बाँधने वाले हैं। मनुष्य स्वार्थबुद्धि से जो कुछ भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भोगने के लिये उसे कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म लेना पड़ता है और बार-बार जन्मना-मरना ही बन्धन है, इसलिये सकाम कर्मों में या पाप कर्मों में लगा हुआ मनुष्य उन कर्मों द्वारा बँधता है। अतएव मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिये निष्कामभाव से केवल कर्तव्यपालन की बुद्धि से ही शास्त्रविहित कर्म करना चाहिये। प्रश्न- ‘अयं लोकः’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- मनुष्यों का ही कर्म करने में अधिकार है तथा मनुष्य योनि में किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिये ही दूसरी योनियाँ मिलती हैं, उनके पुण्य-पापरूप नये कर्म नहीं बनते। इस कारण अन्य योनियों में किये हुए कर्म बाँधने वाले नहीं होते, केवल मनुष्य योनि में किये हुए ही कर्म बन्धन के हेतु होते हैं- यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘अयं लोकः’ पद का प्रयोग किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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