श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘कर्मेन्द्रियाणि’ पद का पारिभाषिक अर्थ नहीं है; इसलिये जिनके द्वारा मनुष्य बाहर की क्रिया करता है अर्थात् शब्दादि विषयों को ग्रहण करता है, उन श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण तथा वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- इन दसों इन्द्रियों का वाचक है; क्योंकि गीता में श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के लिये कहीं भी ‘ज्ञानेन्द्रिय’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसके सिवा यहाँ कर्मेन्द्रियों का अर्थ केवल वाणी आदि पाँच इन्द्रियाँ मान लेने श्रोत्र और नेत्र आदि इन्द्रियों को रोकने की बात शेष रह जाती है और उसके रह जाने से मिथ्याचारी का स्वाँग भी पूरा नहीं बनता; तथा वाणी आदि इन्द्रियों को रोककर श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा वह क्या करता है, यह बात भी यहाँ बतलानी आवश्यक हो जाती है। किंतु भगवान् ने वैसी कोई बात नहीं कही है एवं अगले श्लोक में भी कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करने के लिये कहा है, परंतु केवल वाणि आदि कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण नहीं हो सकता। उसमें सभी इन्द्रियों की आवश्यकता है। इसीलिये यहाँ ‘कर्मेन्द्रियणि’ पद को जिनके द्वारा कर्म किये जायँ ऐसी सभी इन्द्रियों का वाचक मानना ठीक है और हठ से सुनना, देखना आदि क्रियाओं को रोक देना ही उनका हठपूर्वक रोकना है। प्रश्न- यदि कोई साधक भगवान् का ध्यान करने के लिये या इन्द्रियों को वश में करने के लिये हठ से इन्द्रियों को विषयों से रोकने की चेष्टा करता है और उस समय उसका मन वश में न होने के कारण उसके द्वारा विषयों का चिन्तन होता है तो क्या वह भी मिथ्याचारी है? उत्तर- वह मिथ्याचारी नहीं है, वह तो साधक है; क्योंकि मिथ्याचारी की भाँति मन से विषयों का चिन्तन करना उसका उद्देश्य नहीं है। वह तो मन को भी रोकना ही चाहता है; पर आदत, आसक्ति और संस्कारवश उसका मन जबरदस्ती विषयों की ओर चला जाता है। अतः उसमें उसका कोई दोष नहीं है, आरम्भकाल में ऐसा होना स्वाभाविक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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