श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- कर्मयोग की जो परिपक्व स्थिति है- जिसका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में योगनिष्ठा के नाम से किया गया है, उसी का वाचक यहाँ ‘नैष्कर्म्यम्’ पद है। इस स्थिति को प्राप्त पुरुष समस्त कर्म करते हुए भी उनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है, उसके कर्म बन्धन के हेतु नहीं होते[1]; इस कारण उस स्थिति को ‘नैष्कर्म्य’ अर्थात् ‘निष्कर्मता’ कहते हैं। यह स्थिति मनुष्य को निष्कामभाव से कर्तव्यकर्मों का आचरण करने से ही मिलती है, बिना कर्म किये नहीं मिल सकती। इसलिये कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर देना नहीं है, बल्कि उनको निष्कामभाव से करते रहना ही है- यही भाव दिखलाने के लिये कहा गया है कि ‘मनुष्य कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को नहीं प्राप्त होता।’ प्रश्न- कर्मयोग का स्वरूप तो कर्म करना ही है, उसमें कर्मों का आरम्भ न करने की शंका नहीं होती; फिर कर्मों का आरम्भ किये बिना ‘निष्कर्मता’ नहीं मिलती, यह कहने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर- भगवान् अर्जुन को कर्मों में फल और आसक्ति का त्याग करने के लिये कहते हैं और उसका फल कर्मबन्धन से मुक्त हो जाना बतलाते हैं[2]; इस कारण वह यह समझ सकते हैं कि यदि मैं कर्म न करूँ तो अपने-आप ही उनके बन्धन से मुक्त हो जाऊँगा, फिर कर्म करने की जरूरत ही क्या है। इस भ्रम की निवृत्ति के लिये पहले कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते समय भी भगवान् ने कहा है कि ‘मा ते सग्ङोऽस्त्वकर्मणि’ अर्थात् तेरी कर्म न करने में आसक्ति नहीं होनी चाहिये। तथा छठे अध्याय में भी कहा है कि ‘आरुरुक्षु मुनि के लिये कर्म करना ही योगरूढ होने का उपाय है’[3] इसलिये शारीरिक परिश्रम के भय से या अन्य किसी प्रकार की आसक्ति से मनुष्य में जो अप्रवृत्ति का दोष आ जाता है, उसे कर्मयोग में बाधक बतलाने के लिये ही भगवान् ने ऐसा कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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