श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- जो ब्रह्मविषयक स्थिति हो, उसे ‘ब्राह्मी स्थिति’ कहते हैं और जिसका प्रकरण चलता हो उसका द्योतक ‘एषा’ पद है; इसलिये यहाँ अर्जुन के पूछने पर पचपनवें श्लोक से यहाँ तक स्थितप्रज्ञ पुरुष की जिस स्थिति का जगह-जगह वर्णन किया गया है, जो ब्रह्म को प्राप्त महापुरुष की स्थिति है, उसी का वाचक ‘एषा’ और ‘ब्राह्मी’ विशेषण के सहित ‘स्थितिः’ पद है। तथा उपर्युक्त प्रकार से अहंकार, ममता, आसक्ति, स्पृहा और कामना से रहित होकर सर्वथा निर्विकार और निश्चलभाव से सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में नित्य-निरन्तर निमग्न रहना ही उस स्थिति को प्राप्त होना है। प्रश्न- इस स्थिति को प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि ब्रह्म क्या है? ईश्वर क्या है? संसार क्या है? माया क्या है? इनका परस्पर क्या सम्बन्ध है? मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मेरा क्या कर्तव्य है? और क्या कर रहा हूँ? - आदि विषयों का यथार्थ ज्ञान न होना ही मोह है; यह मोह जीव को अनादिकाल से है, इसी के कारण यह इस संसारचक्र में घूम रहा है। पर जब अहंता, ममता, आसक्ति और कामना से रहित होकर मनुष्य उपर्युक्त ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, तब उसका यह अनादिसिद्ध मोह समूल नष्ट हो जाता है, अतएव फिर उसकी उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न- अन्तकाल में भी इस स्थिति में स्थित होकर योगी ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जो मनुष्य जीवित अवस्था में ही इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है, उसके विषय में तो कहना ही क्या है, वह तो ब्रह्मानन्द को प्राप्त जीवन्मुक्त है ही; पर जो साधन करते-करते या अकस्मात् मरणकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होे जाता है अर्थात् अहंकार, ममता, आसक्ति, स्पृहा और कामना से रहित होकर अचल भाव से परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है, वह भी ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। प्रश्न- जो साधक कर्मयोग में श्रद्धा रखने वाला है और उसका मन यदि किसी कारणवश मृत्युकाल में समभाव में स्थिर नहीं रहा तो उसकी क्या गति होगी? उत्तर- मृत्युकाल में रहने वाला समभाव तो साधक का उद्धार तत्काल ही कर देता है, परंतु मृत्युकाल में यदि समता से मन विचलित हो जाय तो भी उसका अभ्यास व्यर्थ नहीं जाता; वह योगभ्रष्ट की गति को प्राप्त होता है और समभाव के संस्कार उसे बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं[1] और फिर वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6। 40-44
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