श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- स्पृहा आसक्ति का ही कार्य है, इसलिये यहाँ स्पृहा का अर्थ आसक्ति मानने में कोई दोष तो नहीं है; परंतु ‘स्पृहा’ शब्द का अर्थ वस्तुतः सूक्ष्म कामना है, आसक्ति नहीं। अतएव आसक्ति न मानकर इसे कामना का ही सूक्ष्म स्वरूप मानना चाहिये। प्रश्न- कामना और स्पृहा से रहित बतलाने के बाद फिर ‘निर्ममः’ और ‘निरहंकारः’ कहने से क्या प्रयोजन है? उत्तर- यहाँ पूर्ण शान्ति को प्राप्त सिद्ध पुरुष का वर्णन है। इसीलिये उसे निष्काम और निःस्पृह के साथ ही निर्मम और निरहंकार भी बतलाया गया है; क्योंकि अधिकांश में निष्काम और निःस्पृह होने पर भी यदि किसी पुरुष में ममता और अहंकार रहते हैं तो वह सिद्ध पुरुष नहीं है और जो मनुष्य निष्काम, निःस्पृह एवं निर्मम होने पर भी अहंकार रहित नहीं है, वह भी सिद्ध नहीं है। अहंकार के नाश से ही सबका नाश है। जब तक कारण रूप अहंकार बना है तब तक कामना, स्पृहा और ममता भी किसी-न-किसी रूप में रह ही सकती है और जब तक किंचिन्मात्र भी कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार है तब तक पूर्ण शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ ‘शान्तिम् अधिगच्छति’ वाक्य से भी पूर्ण शान्ति की ही बात सिद्ध होती है। इस प्रकार की पूर्ण और नित्य शान्ति ममता और अहंकार के रहते कभी प्राप्त नहीं होती। इसलिये निष्काम और निःस्पृह कहने के बाद भी निर्मम और निरहंकार कहना उचित ही है। प्रश्न- ऐसा मानने से तो एक ‘निरहंकार’ शब्द ही पर्याप्त था; फिर निष्काम, निःस्पृह और निर्मम कहने की क्यों आवश्यकता हुई? उत्तर- यह ठीक है कि निरहंकार होने पर कामना, स्पृहा और ममता भी नहीं रहती; क्योंकि अहंकार ही सबका मूल कारण है। कारण के अभाव में कार्य का अभाव अपने-आप ही सिद्ध है। तथापि स्पष्ट रूप से समझाने के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- वह शान्ति को प्राप्त है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस श्लोक में परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के विचरने की विधि बतलाकर अर्जुन के स्थितप्रज्ञविषयक चौथे प्रश्न का उत्तर दिया गया है। अतः उपर्युक्त कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार से विषयों में विचरने वाला पुरुष ही परमशान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त स्थितप्रज्ञ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज