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द्वितीय अध्याय
प्रश्न- सम्पूर्ण प्राणियों का जागना क्या है? और जिसमें सब प्राणी जागते हैं, वह परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिये रात्रि के समान कैसे है?
उत्तर- यद्यपि इस लोक और परलोक में जितने भी भोग हैं सब नाशवान्, क्षणिक, अनित्य और दुःखरूप हैं, तथापि अनादिसिद्ध अन्धकारमय अज्ञान के कारण विषयासक्त मनुष्य उनको नित्य और सुखरूप मानते हैं; उनकी दृष्टि में विषयभोग से बढ़कर और कोई सुख ही नहीं है; इस प्रकार भोगों में आसक्त होकर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा में लगे रहना और उनकी प्राप्ति में आनन्द का अनुभव करना, यही उन सम्पूर्ण प्राणियों का उनमें जागना है। यह इन्द्रिय और विषयों के संयोग से तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा से उत्पन्न सुखरात्रि की भाँति अज्ञानरूप अन्धकारमय होने के कारण वास्तव में रात्रि ही है; तो भी अज्ञानी प्राणी इसी को दिन समझकर इसमें वैसे ही जाग रहे हैं, जैसे कोई नींद में सोया हुआ मनुष्य स्वप्न के दृश्यों को देखता हुआ स्वप्न में समझता है कि मैं जाग रहा हूँ। किंतु परमात्मतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी के अनुभव में जैसे स्वप्न से जगे हुए मनुष्य का स्वप्न के जगत् से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; वैसे ही एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं रहती, वह ज्ञानी इस दृश्य जगत् के स्थान में इसके अधिष्ठान रूप परमात्मतत्त्व को ही देखता है; अतएव उसके लिये समस्त सांसारिक भोग और विषयानन्द रात्रि के समान हैं।
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