द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- उपर्युक्त प्रकार से मन सहित इन्द्रियों को वश में न करने से और भगवत्परायण न होने से क्या हानि है? यह बात अब दो श्लोकों में बतलायी जाती है-
ध्यायतो विषयान् पुंसः सग्ङस्तेषूपजायते।
सग्ङात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। 62 ।।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।। 62 ।।
प्रश्न- विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है - इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस मनुष्य की भोगों में सुख और रमणीय बुद्धि है, जिसका मन वश में नहीं है और जो परमात्मा का चिन्तन नहीं करता, ऐसे मनुष्य का परमात्मा में प्रेम और उसका आश्रय न रहने के कारण उसके मन द्वारा इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन होता रहता है। इस प्रकार विषयों का चिन्तन करते-करते उन विषयों में उसकी अत्यन्त आसक्ति हो जाती है। तब फिर उसके हाथ की बात नहीं रहती, उसका मन विचलित हो जाता है।
प्रश्न- विषयों के चिन्तन से क्या सभी पुरुषों के मन में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है?
उत्तर- जिन पुरुषों को परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है, उनके लिए तो विषयचिन्तन से आसक्ति होने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। ‘परं दृष्ट्वा निवर्तते’ से भगवान् ऐसे पुरुषों में आसक्ति का अत्यन्ताभाव बतला चुके हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सभी के मनों में न्यूनाधिक रूप में आसक्ति उत्पन्न हो सकती है।
प्रश्न- आसक्ति से कामना का उत्पन्न होना क्या है? और कामना से क्रोध का उत्पन्न होना क्या है?
उत्तर- विषयों का चिन्तन करते-करते जब मनुष्य की उनमें अत्यन्त आसक्ति हो जाती है, उस समय उसके मन में नाना प्रकार के भोग प्राप्त करने की प्रबल इच्छा जाग्रत् हो उठती है; यही आसक्ति से कामना का उत्पन्न होना है तथा उस कामना में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित होने पर जो उस विघ्न के कारण में द्वेष बुद्धि होकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है; यही कामना से क्रोध का उत्पन्न होना है।
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