श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- उपर्युक्त वाक्य का ऐसा अर्थ लिया तो जा सकता है; किंतु इस प्रकार मन के द्वारा विषयों का आस्वादन विषयों में आसक्ति होने पर ही होता है अतः ‘रस’ का अर्थ ‘आसक्ति’ लेने से यह बात उसके अन्तर्गत ही आ जाती है। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार मन के द्वारा विषयों का उपभोग परमात्मा के साक्षात्कार से पूर्व हठ, विवेक एवं विचार के द्वारा भी रोका जा सकता है; परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर तो उसके मूल आसक्ति का भी नाश हो जाता है और इसी में परमात्मा के साक्षात्कार की चरितार्थता है, विषयों का मन से उपभोग हटाने में नहीं। अतः ‘रस’ का अर्थ जो ऊपर किया गया है वही ठीक है। प्रश्न- ‘अस्य’ पद किसका वाचक है और ‘इसकी आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है’ इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- ‘अस्य’ पद, यहाँ जिसका प्रकरण चल रहा है उस स्थितप्रज्ञ योगी का वाचक है तथा उपर्युक्त कथन से यहाँ यह दिखलाया गया है कि उस स्थितप्रज्ञ योगी को परमानन्द के समुद्र परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने के कारण उसकी किसी भी सांसारिक पदार्थ में जरा भी आसक्ति नहीं रहती। क्योंकि आसक्ति का कारण अविद्या है,[1] उस अविद्या का परमात्मा के साक्षात्कार होने पर अभाव हो जाता है। साधारण मनुष्यों को मोहवश इन्द्रियों के भोगों में सुख की प्रतीति हो रही है, इसी कारण उनकी उन भोगों में आसक्ति है; पर वास्तव में भोगों में सुख का लेश भी नहीं है। उनमें जो कुछ सुख प्रतीत हो रहा है, वह भी उस परम आनन्दस्वरूप परमात्मा के आनन्द के किसी अंश का आभास मात्र ही है। जैसे अँधेरी रात में चमकने वाले नक्षत्रों में जिस प्रकाश की प्रतीति होती है वह प्रकाश सूर्य के ही प्रकाश का आभास है और सूर्य के उदय हो जाने पर उनका प्रकाश लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार सांसारिक पदार्थों में प्रतीत होने वाला सुख आनन्दमय परमात्मा के आनन्द का ही आभास है; अतः जिस मनुष्य को उस परम आनन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, उसको इन भोगों में सुख की प्रतीति ही ही मिट जाता है; फिर किसी दूसरी वस्तु का चिन्तन कौन करे? इसीलिये परमात्मा के साक्षात्कार से आसक्ति के सर्वथा निवृत्त होने की बात कही गयी है। इस प्रकार आसक्ति न रहने के कारण स्थितप्रज्ञ के संयम में केवल विषयों की ही निवृत्ति नहीं होती, मूल सहित आसक्ति का भी सर्वथा अभाव हो जाता है; यह उसकी विशेषता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:। (योग. 2।3)
अज्ञान, चिज्जडग्रंथि यानी जड अर चेतन की एकता सी प्रतीत होना, आसक्ति, द्वेष और मरण-भय- इन पाँचों की क्लेश संज्ञा है।
अबिद्या क्षेत्रमुत्तरेषाम..............। (योग. 2।4)
उपर्युक्त पाँचों में पिछले चारों का कारण अविद्या है अर्थात अविद्या से ही राग-द्वेषादि की उत्पत्ति होती है।
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