श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
प्रश्न- ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना बुद्धि’ का क्या स्वरूप है? उत्तर- इस लोक और परलोक के भोगैश्वर्य और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से बुद्धि में विक्षिप्तता आ जाती है; इसके कारण वह एक निश्चय पर निश्चलरूप से नही टिक सकती, अभी एक बात को अच्छी समझती है, तो कुछ ही समय बाद दूसरी बात को अच्छी मानने लगती है। ऐसी विक्षिप्त और अनिश्चयात्मिका बुद्धि को यहाँ ‘श्रुतिविपतिपन्ना बुद्धि’ कहा गया है। यह बुद्धि का विक्षेप दोष है। प्रश्न- उसका परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाना क्या है? उत्तर- मोहरूप दलदल से पार हो जाने के कारण इस लोक और परलोक के भोगों से सर्वथा विरक्त हुई बुद्धि का जो विक्षेपदोष से सर्वथा रहित हो जाना और एकमात्र परमात्मा में ही स्थायी रूप से निश्चल टिक जाना है, यही उसका परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाना है। प्रश्न- उस समय ‘योग’ का प्राप्त होना क्या है? उत्तर- यहाँ ‘योग’ शब्द परमात्मा के साथ नित्य और पूर्ण संयोग का वाचक है। क्योंकि यह मल, विक्षेप और आवरण दोष से रहित विवेकवैराग्यसम्पन्न और परमात्मा में निश्चलरूप से स्थित बुद्धि का फल है तथा इसके बाद ही अर्जुन ने परमात्मा को प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरुषों के लक्षण पूछे हैं इससे भी यही सिद्ध होता है। प्रश्न- पचासवें श्लोक में तो योग का अर्थ समत्व किया गया है और यहाँ उसे परमात्मा की प्राप्ति का वाचक माना गया है; इसका क्या तात्पर्य है? उत्तर- वहाँ योगरूपी साधन के लिये चेष्टा करने की बात कही गयी है, और यहाँ ‘स्थिरबुद्धि’ होने के बाद फलरूप में प्राप्त होने वाले योग की बात है। इसी से यहाँ ‘योग’ शब्द को परमात्मा की प्राप्ति का वाचक माना गया है। गीता में ‘योग’ और ‘योगी’ शब्द निम्नलिखित कुछ उदाहरणों के अनुसार प्रसंगानुकूल विभिन्न अर्थों में आये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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