श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- सकाम कर्मों को बुद्धियोग की अपेक्षा अत्यन्त नीचा बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सकाम कर्मों का फल नाशवान् क्षणिक सुख की प्राप्ति है और कर्मयोग का फल परमात्मा की प्राप्ति है। अतः दोनों में दिन और रात की भाँति महान् अन्तर है। यहाँ ‘कर्म’ पद का अर्थ निषिद्ध कर्म नहीं माना जा सकता; क्योंकि वे सर्वथा त्याज्य हैं और उनका फल महान् दुःखों की प्राप्ति है। इसलिये उनकी तुलना बुद्धियोग का महत्त्व दिखलाने के लिये नहीं की जा सकती। प्रश्न- ‘बुद्धौ’ पद किसका वाचक है और अर्जुन को उसका आश्रय लेने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिस समबुद्धि का प्रकरण चल रहा है, उसी का वाचक यहाँ ‘बुद्धौ’ पद है; उसका आश्रय लेने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते और हरेक कर्म करते समय तुम निरन्तर समभाव में स्थित रहने की चेष्टा करते रहो, यही कल्याण प्राप्ति का सुगम उपाय है। प्रश्न- कर्मफल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि जो मनुष्य कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना करके कर्मफल प्राप्ति के कारण बन जाते हैं, वे दीन हैं अर्थात् दया के पात्र हैं; इसलिये तुमको वैसा नहीं बनना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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