द्वितीय अध्याय
प्रश्न- जब समत्व का ही नाम योग है, तब सिद्धि और असिद्धि में सम होकर कर्म करने के अन्तर्गत ही योग में स्थित होने की बात आ जाती है; फिर योग में स्थित होने के लिये अलग कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- कर्म की सिद्धि और असिद्धि में समता रखते-रखते ही मनुष्य की समभाव में अटल स्थिति होती है और समभाव का स्थिर हो जाना ही कर्मयोग की अवधि है। अतः यहाँ योग में स्थित होकर कर्म करने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि केवल सिद्धि और असिद्धि में ही समत्व रखने से काम नहीं चलेगा, प्रत्येक क्रिया के करते समय भी तुमको किसी भी पदार्थ में, कर्म में या उसके फल में अथवा किसी भी प्राणी में विषम भाव न रखकर नित्य समभाव में स्थित रहना चाहिये।
प्रश्न- ‘समत्व ही योग कहलाता है’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे भगवान् ने ‘योग’ पद का पारिभाषिक अर्थ बतलाया है। अभिप्राय यह है कि यहाँ योग समता का नाम है और किसी भी साधन के द्वारा समत्व को प्राप्त कर लेना ही योगी बनना है। अतएव तुमको कर्मयोगी बनने के लिये समभाव में स्थित होकर कर्म करना चाहिये।
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