श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इस श्लोक में भगवान् ने कर्मयोग के आचरण की प्रक्रिया बतलायी है। कर्मयोग का साधक जब कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का त्याग कर देता है, तब उसमें राग-द्वेष का और उनसे होने वाले हर्ष-शोकादि का अभाव हो जाता है। ऐसा होने से ही वह सिद्धि और असिद्धि में सम रह सकता है। इन दोषों के रहते सिद्धि और असिद्धि में सम नहीं रहा जा सकता तथा सिद्धि और असिद्धि में अर्थात् किये जाने वाले कर्म के पूर्ण होने और न होने में तथा उसके अनुकूल और प्रतिकूल परिणाम में सम रहने की चेष्टा रखने से अन्त में राग-द्वेष आदि का अभाव होता है। इस प्रकार आसक्ति के त्याग का और समता का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं दोनों परस्पर एक-दूसरे के सहायक हैं, इसलिये भगवान् ने यहाँ आसक्ति का त्याग करके और सिद्धि-असिद्धि में सम होकर कर्म करने के लिये कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज