श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
उत्तर - इससे संजय ने व्यासजी के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् व्यासजी ने दया करके जो मुझे दिव्य दृष्टि अर्थात् दूर देश में होने वाली समस्त घटनाओं को देखने, सुनने और समझने आदि की अद्भुत शक्ति प्रदान की है-उसी के कारण आज मुझे भगवान् का यह दिव्य उपदेश सुनने के लिये मिला; नही तो मुझे ऐसा सुयोग कैसे मिलता? प्रश्न - ‘एतत्’ पद यहाँ किसका वाचक है तथा उसके साथ ‘परम्’, ‘गुह्यम्’ और ‘योगम्’- इन तीनों विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर - ‘एतत् पद यहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप इस गीताशास्त्र का वाचक है, इसके साथ ‘परम’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि यह अतिशय उत्तम है, ‘गुह्यम्’ विशेषण देखकर यह भाव दिखलाया है कि यह अत्यन्त गुप्त रखने योग्य है, अतः अनधिकारी के सामने इसका वर्णन नहीं करना चाहिये; तथा ‘योगम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया गया है कि भगवान् की प्राप्ति के उपायभूत कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग आदि साधनों का इसमें भली-भाँति वर्णन किया गया है तथा वह स्वयं भी अर्थात् श्रद्धापूर्वक इसका पाठ भी परमात्मा की प्राप्ति का साधन होने से योगरूप ही है। प्रश्न - उपर्युक्त विशेषणों से युक्त इस उपदेश को मैंने अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर - इससे संजय ने धृतराष्ट्र के प्रति यह भाव प्रकट किया है कि यह गीताशास्त्र- जो मैंने आपको सुनाया है- किसी दूसरे से सुनी हुई बात नहीं है, किन्तु समस्त योग-शक्तियों के अध्यक्ष सर्वशक्तिमान् स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के ही मुखारविन्द से उस समय जबकि वे उसे अर्जुन से कह रहे थे- मैंने प्रत्यक्ष सुना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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