श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
उत्तर- दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ करके इस अध्याय के छाछठवें श्लोक-पर्यन्त भगवान् ने जो दिव्य उपदेश दिया है, उस परम गोपनीय समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ‘एतत्’ पद है। उस उपदेश का महत्त्व प्रकट करने के लिये ही भगवान् ने यहाँ अर्जुन से उपर्युक्त प्रश्न किया है। अभिप्राय यह है कि मेरा यह उपदेश बड़ा ही दुर्लभ है, मैं हरेक मनुष्य के सामने ‘मैं ही साक्षात् परमेश्वर हूँ, तू मेरी ही शरण में आ जा’ इत्यादि बातें नहीं कह सकता; इसलिये तुमने मेरे उपदेश को भली-भाँति ध्यानपूर्वक सुन तो लिया है न? क्योंकि यदि कहीं तुमने उस पर ध्यान न दिया होगा तो तुमने निःसन्देह बड़ी भूल की है। प्रश्न- क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?- इस प्रश्न का क्या भाव है? उत्तर- इस प्रश्न से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि तुमने उस उपदेश को भली-भाँति सुना है तो उसका फल भी अवश्य होना चाहिये। इसलिये तुम जिस मोह से व्याप्त होकर धर्म के विषय में अपने को मूढ़चेता बतला रहे थे[1] तथा अपने स्वधर्म का पालन करने में पाप समझ रहे थे[2] और समस्त कर्तव्य कर्मों का त्याग कर के भिक्षा के अन्न से जीवन बिताना श्रेष्ठ समझ रहे थे[3] एवं जिसके कारण तुम स्वजनवध के भय से व्याकुल हो रहे थे[4] और अपने कर्तव्य का निश्चय नही कर पाते थे[5]- तुम्हारा वह आज्ञानजनित मोह अब नष्ट हो गया या नहीं? यदि मेरे उपदेश को तुमने ध्यानपूर्वक सुना होगा तो अवश्य ही तुम्हारा मोह नष्ट हो जाना चाहिये। और यदि तुम्हारा मोह नष्ट नहीं हुआ है, तो यही मानना पड़ेगा कि तुमने उस उपदेश को एकाग्रचित्त से नहीं सुना। यहाँ भगवान् ने इन दोनों प्रश्नों में यह उपदेश भरा हुआ है कि मनुष्य को इस गीता-शास्त्र का अध्ययन और श्रवण बड़ी सावधानी के साथ एकाग्रचित्त से तत्पर होकर करना चाहिये और जब तक अज्ञानजनित मोह का सर्वथा नाश न हो जाय तब तक यह समझना चाहिये कि अभी तक मैं भगवान् के उपदेश को यथार्थ नहीं समझ सका हूँ, अतः पुनः उस पर श्रद्धा और विवेकपूर्वक विचार करना आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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