श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर: ।
उत्तर- यहाँ ‘नरः’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जिसके अंदर इस गीताशास्त्र को श्रद्धापूर्वक श्रवण करने की भी रुचि नहीं है, वह तो मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं है; क्योंकि उसका मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ हो रहा है। इस कारण वह मनुष्य के रूप में पशु के ही तुल्य है। प्रश्न- श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण करना क्या है? उत्तर- भगवान् की सत्ता में और उनके गुण-प्रभाव में विश्वास करके तथा यह गीताशास्त्र साक्षात् भगवान् की ही वाणी है, इसमें जो कुछ भी कहा गया है सब-का-सब यथार्थ है- ऐसा निश्चयपूर्वक मानकर और उसके वक्ता पर विश्वास करके प्रेम और रुचि के साथ गीता जी के मूल श्लोकों के पाठ का या उसके अर्थ की व्याख्या का श्रवण करना, यह श्रद्धा से युक्त होकर गीताशास्त्र का श्रवण करना है। और उसका श्रवण करते समय भगवान् पर या भगवान् के वचनों पर किसी प्रकार का दोषारोपण न करना एवं गीताशास्त्र की किसी भी रूप् में भी अवज्ञा न करना- यह दोषदृष्टि से रहित होकर उसका श्रवण करना है। प्रश्न- ‘श्रृणुयात्’ के साथ ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘श्रृणुयात्’ के साथ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो अड़सठवें श्लोक के वर्णानुसार इस गीताशास्त्र-का दूसरों को अध्ययन कराता है तथा जो सत्तरवें श्लोक के कथनानुसार स्वयं अध्ययन कराता है उन लोगों की तो बात ही क्या है, पर जो इसका श्रद्धापूर्वक श्रवणमात्र भी कर पाता है, वह भी पापों से छूट जाता है। इसलिये जिससे इसका अध्यापन अथवा अध्ययन भी न बन सके, उसे इसका श्रवण तो अवश्य ही करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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