श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।
उत्तर- ‘तस्मात्’ पद यहाँ पूर्वश्लोक में वर्णित, इस गीताशास्त्र का भगवान् के भक्तों में कथन करने वाले गीताशास्त्र के मर्मज्ञ, श्रद्धालु और प्रेमी भगवद्भक्त का वाचक है। ‘उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है।’ इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा और जप, ध्यान आदि जितने भी मेरे प्रिय कार्य हैं- उन सबसे बढ़कर ‘मेरे भावों को मेरे भक्तों में विस्तार करना’ मुझे प्रिय है; इस कार्य के बराबर मेरा प्रिय कार्य संसार में कोई है ही नहीं। इस कारण जो मेरा प्रेमी भक्त मेरे भावों का श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरे भक्तों में विस्तार करता है, वही सबसे बढ़कर मेरा प्रिय है; उससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं। क्योंकि वह अपने स्वार्थ को सर्वथा त्यागकर केवल मेरा ही प्रिय कार्य करता है, इस कारण वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। प्रश्न- पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह घोषणा कर दी है कि केवल इस समय ही उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय नहीं है; यही बात नही है; किन्तु उससे बढ़कर मेरा प्यारा कोई हो सकेगा, यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि जब उसके कार्य से बढ़कर दूसरा कोई मेरा प्रिय कार्य है ही नहीं, तब किसी भी साधन के द्वारा कोई भी मनुष्य मेरा उससे बढ़कर प्रिय कैसे हो सकता है? इसलिये मेरी प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उन सब में यह ‘भक्तिपूर्वक मेरे भक्तों में मेरे भावों का विस्तार करना रूप’ साधन सर्वोत्तम है- ऐसा समझकर मेरे भक्तों को यह कार्य करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज