श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
प्रश्न- कर्मों के फलों में तेरा कभी अधिकार नहीं है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य कर्मों का फल प्राप्त करने में कभी किसी प्रकार भी स्वतन्त्र नहीं है; उसके कौन से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किस प्रकार प्राप्त होगा? इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है अथवा न उससे बच ही सकता है। मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और ही है। बहुत मनुष्य नाना प्रकार के भोगों को भोगना चाहते हैं, पर इसके लिये सुयोग मिलना उनके हाथ की बात नहीं है। अनेक तरह के संयोग-वियोग वे नहीं चाहते, पर बलात् हो जाते हैं; कर्मों के फल का विधान करना सर्वथा विधाता के अधीन है; मनुष्य का उसमें कुछ भी उपाय नहीं चलता। अवश्य ही पुत्रेष्टि आदि शास्त्रीय यज्ञानुष्ठानों के सांगोपांग पूर्ण होने पर उनके फल प्राप्त होने का निश्चित विधान है और वैसे कर्म सकाम मनुष्य कर भी सकते है; परंतु उनका यह विहित फल भी कर्म-कर्ता के अधीन नहीं है, देवता के ही अधीन है। इसलिये इस प्रकार इच्छा करना कि अमुक वस्तु की, धनैश्वर्य की, मान-बड़ाई या प्रतिष्ठा की अथवा स्वर्ग आदि लोकों की मुझे प्राप्ति हो, एक प्रकार से अज्ञान ही है। साथ ही ये सब अत्यन्त ही तुच्छ तथा अल्पकालस्थायी अनित्य पदार्थ हैं, अतएव तुमको तो किसी भी फल की कामना नहीं करनी चाहिए। प्रश्न- तो क्या मुक्ति की कामना भी नहीं करनी चाहिये? उत्तर- मुक्ति की कामना शुभेच्छा होने के कारण मुक्ति में सहायक है; यद्यपि इस इच्छा का भी न होना उत्तम है, परंतु भगवान् के तत्त्व और मर्म को यथार्थ रूप् से जाने बिना इस इच्छा से रहित होकर और ईश्वराज्ञा के पालन को कर्तव्य समझकर हेतुरहित कर्मों का आचरण करना बहुत ही कठिन है। अतएव मुक्ति की कामना करना अनुचित नहीं है। मुक्ति की इच्छा न रखने से शीघ्र मुक्ति की प्राप्ति होगी, इस प्रकार का भाव भी छिपी हुई मुक्ति की इच्छा ही है। प्रश्न- ‘कर्मफल का हेतु बनना’ क्या है? और अर्जुन को कर्मफल का हेतु न बनने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा किये हुए शास्त्रविहित कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति, वासना, आशा, स्पृहा और कामना करना ही कर्मफल का हेतु बनना है; क्योंकि जो मनुष्य उपर्युक्त प्रकार से कर्मों में और उनके फल में आसक्त होता है उसी को उन कर्मों का फल मिलता है, कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देने वाले को नहीं।[1] अतः अर्जुन को कर्मफल का हेतु न बनने के लिये कहकर भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि परमशान्ति की प्राप्ति के लिये तुम अपने कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18।12
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