श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- पूर्वश्लोकों में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इसपर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति या स्वभाव जड़ है, वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है? इसलिये भगवान कहते हैं- ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशऽर्जुन तिष्ठति ।
उत्तर- यहाँ शरीर को यन्त्र का रूप देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे रेलगाड़ी आदि किन्हीं यन्त्रों पर बैठा हुआ मनुष्य स्वयं नहीं चलता, तो भी रेलगाड़ी आदि यन्त्र के चलने से उसका चलना हो जाता है- उसी प्रकार यद्यपि आत्मा निश्चल है, उसका किसी भी क्रिया से वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तो भी अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण उसका शरीर से सम्बन्ध होने से उस शरीर की क्रिया उसकी क्रिया मानी जाती है। ईश्वर को सब भूतों के हृदय में स्थित बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि यन्त्र को चलाने वाला प्रेरक जैसे स्वयं भी उस यन्त्र में रहता है, उसी प्रकार ईश्वर भी समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित है और उनके हृदय में स्थित रहते हुए ही उनके कर्मानुसार उनको भ्रमण कराते रहते हैं। इसलिये ईश्वर के किसी भी विधान में जरा भी भूल नहीं हो सकती; क्योंकि वे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ परमेश्वर उसके समस्त कर्मों को भली-भाँति जानते हैं। प्रश्न- ‘यन्त्रारूढानि’ विशेषण के सहित ‘भूतानि’ पद किनका वाचक है और भगवान का उनको अपनी माया से भ्रमण करना क्या है? उत्तर- शरीर रूप यन्त्र में स्थित समस्त प्राणियों का वाचक यहाँ ‘यन्त्रारूढानि’ विशेषण के सहित ‘भूतानि’ पद है तथा उन सबको उनके पूर्वार्जित कर्म-संस्कारों के अनुसार फल भुगताने के लिये बार-बार नाना योनियों में उत्पन्न करना तथा भिन्न-भिन्न पदार्थों से, क्रियाओं से और प्राणियों से उनका संयोग-वियोग कराना और उनके स्वभाव (प्रकृति)-के अनुसार उन्हें पुनः चेष्टा करने में लगाना-यही भगवान का उन प्राणियों को अपनी माया द्वारा भ्रमण कराना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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