श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इस श्लोक में जलाशय का दृष्टान्त देकर भगवान् ने ज्ञानी महात्माओं की आत्यन्तिक तृप्ति का वर्णन किया है। अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्य को अमृत के समान स्वादु और गुणकारी अथाह जल से भरा हुआ जलाशय मिल जाता है, उसको जैसे जल के लिये (वापी, कूप, तड़ागादि) छोटे-छोटे जलाशयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता, उसकी जलविषयक सारी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती हैं, वैसे ही जो पुरुष समस्त भोगों में ममता, आसक्ति का त्याग करके सच्चिदानन्दघन परमात्मा को जान लेता है, जिसको परमानन्द के समुद्र पूर्णब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, उसको आनन्द की प्राप्ति के लिये वेदोक्त कर्मों के फलस्वरूप भोगों से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। वह सर्वथा पूर्णकाम और नित्यतृप्त हो जाता है, अतः ऐसी स्थिति की प्राप्ति के लिये मनुष्य को वेदोक्त कर्मों के फलरूप भोगों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके पूर्णतया ‘निस्त्रैगुण्य’ हो जाना चाहिये। प्रश्न- सब ओर से परिपूर्ण जलाशय में मनुष्य को जितने जल का प्रयोजन होता है, उतना जल वह ले लेता है, इसी प्रकार ब्रह्म को जानने वाला ज्ञानी पुरुष अपने प्रयोजन के अनुसार वेदों के अंश को ले लेता है- ऐसा अर्थ मानने में क्या आपत्ति है? उत्तर- ऐसा अर्थ भी बन सकता है, इसमें कोई हानि की बात नहीं है, किंतु उपर्युक्त अर्थ का भाव और भी सुन्दर है, क्योंकि ब्रह्म को प्राप्त हुए ज्ञानी पुरुष का संसार में कोई भी प्रयोजन नहीं रहता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3।18
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