श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रश्न- ‘ममता से रहित होना’ क्या है? उत्तर- मन और इन्द्रियों के सहित शरीर में, समस्त प्राणियों में, कर्मों में, समस्त भोगों में एवं जाति, कुल, देश, वर्ण और आश्रम में ममता का सर्वथा त्याग कर देना; किसी भी वस्तु, क्रिया या प्राणी में ‘अमुक पदार्थ या प्राणी मेरा है और अमुक पराया है’ इस प्रकार के भेद भाव को न रहने देना ‘ममता से रहित होना’ है। प्रश्न- ‘शान्तः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- उपयुक्त साधनों के कारण जिसके अन्तःकरण में विक्षेप का सर्वथा अभाव हो गया है और इसी से जिसका अन्तःकरण अटल शान्ति और शुद्ध सात्त्विक प्रसन्नता से व्याप्त रहता है- ‘शान्तः’ पद ऐसे उपरत मनुष्य का वाचक है। प्रश्न- उपर्युक्त विशेषणों का वर्णन करके ऐसा पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है- यह कहने का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करने वाला मनुष्य इन साधनों से सम्पन्न होने पर ब्रह्मभाव को प्राप्त होने का अधिकारी बन जाता है और तत्काल ही ब्रह्मभाव-को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का भेदभाव सर्वथा नष्ट होकर ‘मैं ही सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हूँ’ ऐसी दृढ़ स्थिति हो जाती है। उस समय वह समस्त जगत् में अपने को स्थित और समस्त जगत् को अपने में कल्पित देखता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6। 29
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