श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
उत्तर- बड़े-से-बड़े बलवान् शत्रु का न्याययुक्त सामना करने में भय न करना तथा न्याययुक्त युद्ध करने के लिये सदा ही उत्साहित रहना और युद्ध के समय साहसपूर्वक गम्भीरता से लड़ते रहना ‘शूरवीरता’ है। भीष्मपितामह का जीवन इसका ज्वलंत उदाहरण है।[1] प्रश्न- ‘तेज’ किसका नाम है? उत्तर- जिस शक्ति के प्रभाव से मनुष्य दूसरों का दबाब मानकर किसी भी कर्तव्य पालन से कभी विमुख नहीं होता; और दूसरे लोग न्याय के और उसके प्रतिकूल व्यवहार करने में डरते रहते हैं, उस शक्ति का नाम तेज है। इसी को प्रताप और प्रभाव भी कहते हैं। प्रश्न- ‘धैर्य’ किसको कहते हैं? उत्तर- बड़े-से-बड़ा संकट उपस्थित हो जाने पर- युद्धस्थल में शरीर भारी-से-भारी चोट लग जाने पर, अपने पुत्र-पौत्रादि के मर जाने पर, सर्वस्व का नाश हो जाने पर या इसी तरह अन्य किसी प्रकार की भारी-से-भारी विपत्ति आ पड़ने पर भी व्याकुल न होना कर्तव्यपालन से कभी विचलित न होकर न्यायानुकुल कर्तव्यपालन में संलग्न रहना- में संलग्न रहना-इसी का नाम ‘धैर्य’ है। प्रश्न- ‘चतुरता’ क्या है? उत्तर- परस्पर झगड़ा करने वालों का न्याय करने में, अपने कर्तव्य का निर्णय और पालन करने में, युद्ध करने में तथा मित्र, वैरी और मध्यस्थों के साथ यथायोग्य व्यवहार करने आदि में जो कुशलता है, उसी का नाम ‘चतुरता’ है। प्रश्न- युद्ध में न भागना किसको कहते हैं? उत्तर- युद्ध करते समय भारी-से-भारी संकट आ पड़ने पर भी पीठ न दिखलाना, हर हालत में न्यायपूर्वक सामना करके अपनी शक्ति का प्रयोग करते रहना और प्राणों की परवा न करके युद्ध में डटे रहना ही ‘युद्ध में न भागना’ है। इसी धर्म को ध्यान में रखते समय हुए वीर बालक अभिमन्यु ने छः महारथियों से अकेले युद्ध करके प्राण दे दिये, किन्तु शस्त्र नहीं छोड़े।[2] आधुनिक काल में भी राजस्थान के इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जिसमें वीर राजपूतों ने युद्ध में हार जाने पर शत्रु को पीठ नहीं दिखायी और अकेले सैकड़ों-हजारों सैनिकों से जूझकर प्राण दे दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बालब्रह्मचारी पितामह भीष्म में क्षत्रियोचित सब गुण प्रकट थे। उन्होंने प्रसिद्ध क्षत्रियशत्रु भगवान् परशुराम जी से शस्त्रविद्या सीखी थी। जिस समय परशुराम जी ने काशिराज की कन्या अम्बा से विवाह कर लेने के लिये भीष्म पर बहुत दबाव डाला, उस समय उन्होंने बड़ी नम्रता से अपने सत्य की रक्षा के लिये ऐसा करने से बिल्कुल इन्कार कर दिया; परन्तु जब परशुराम जी किसी तरह न माने और बहुत धमकाने लगे, तब उन्होंने साफ कह दिया-
न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थलोभान्न काम्यया। क्षात्रं धर्ममहं जह्यामिति मे व्रतमाहितम्।।
यच्चापि कत्थ से राम बहुशः परिवत्सरे। निर्जिताः क्षत्रिया लोके मयैकेनेति तच्छृणु।।
न तदा जातवान् भीष्मः क्षत्रियो वापि मद्विधः। पश्चाज्जातानि तेजांसि तृणेषु ज्वलितं त्वया।।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं युद्धे राम न संशयः। (महा, उद्योग。178)‘भय, दया धन के लोभ और कामना से मैं कभी क्षात्र धर्म का त्याग नहीं कर सकता-यह मेरा धारण किया हुआ व्रत है। हे परशुराम जी! आप जो लोगों के सामने बड़ी डींग हाका करते हैं कि ‘मैंने बहुत वर्षों तक अकेले ही क्षत्रियों का अनेकों बार (इक्कीस बार) संहार किया है तो उसके लिये भी सुनिये- उस समय भीष्म या भीष्म के समान कोई क्षत्रिय पैदा नहीं हुआ था। आपने तिनकों पर ही अपना प्रताप दिखाया है! क्षत्रियों में तेजस्वी तो पीछे से प्रकट हुए हैं। हे परशुराम जी! इस समय युद्ध मैं आपके घमंड को निःसन्देह चूर्ण कर दूँगा।’ परशुराम जी कुपित हो गये। युद्ध छिड़ गया और लगातार तेईस दिनों तक भयानक युद्ध होता रहा, परन्तु परशुराम जी भीष्म को परास्त न कर सके। आखिर नारद आदि देवर्षियों के और भीष्म जननी श्रीगंगा जी के प्रकट होकर बीच में पड़ने पर तथा परशुराम जी के धनुष छोड़ देने पर ही युद्ध समाप्त हुआ। भीष्म ने न तो रण से पीठ दिखायी और न पहले शस्त्र को ही छोड़ा (महा., उद्योग. 185)।
महाभारत के अठारह दिनों के संग्राम में दस दिनों तक अकेले भीष्म जी ने कौरव पक्ष के सेनापतित्व के पद को सुशोभित किया। शेष आठ दिनों में कई सेनापति बदले। भगवान् श्रीकृष्ण महाभारत-युद्ध में शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। कहते हैं कि भीष्म ने किसी कारणवश प्रण कर लिया कि मैं भगवान् को शस्त्र ग्रहण करवा दूँगा। महाभारत में यह कथा इस रूप में न होने पर भी सूरदास ने भीष्म प्रतिज्ञा का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है-
आज जो हरिहि न शस्त्र गहाऊँ।
तौ लाजौ गंगा जननी को, सांतनु सुत न कहाऊँ।।
स्यंदन खंडि महारथ खंडौं, कपिध्वज सहित डुलाऊँ। इती न करौं सपथ मोहि हरि की, क्षत्रिय गतिहि न पाऊँ।।
पांडवदल सनमुख है धाऊँ, सरिता रुधिर बहाऊँ। सूरदास रनभूमि बिजय बिन, जियत न पीठ दिखाऊँ।।जो कुछ भी हो; महाभारत में लिखा है- युद्ध आरम्भ के तीसरे दिन भीष्मपितामह ने जब बड़ा ही प्रचण्ड संग्राम किया तब भगवान् ने कुपित होकर घोड़ों की रास हाथ से छोड़ दी और सूर्य के समान प्रभायुक्त अपने चक्र को हाथ में लेकर उसे घुमाते हुए रथ से कूद पड़े। श्रीकृष्ण को चक्र हाथ में लिये हुए देखकर सब लोग ऊँचे स्वर से हाहाकार करने लगे। भगवान् प्रलय की अग्नि के समान भीष्म तनिक भी नहीं डरे और अविचलितभाव से अपने धनुष की डोरी को बजाते हुए कहने लगे- हे देवदेव! हे जगन्निवास! हे माधव! हे चक्रपाणि! पधारिये। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे सबको शरण देने वाले! मुझे बलपूर्वक इस श्रेष्ठ रथ से नीचे गिरा दीजिये। हे श्रीकृष्ण! आज आपके हाथ से मारे जाने पर मेरा इस लोक और परलोक में बड़ा कल्याण होगा। हे यदुनाथ! आप स्वयं मुझे मारने दौड़े, इससे मेरा गौरव तीनों लोकों में बढ़ गया।’ अर्जुन ने दौड़कर पीछे से भगवान् के पैर पकड़ लिये और किसी तरह उन्हें लौटाया (महा., भीष्म. 59)।
नवें दिन की बात है, भगवान् ने देखा-भीष्म ने पाण्डव सेना में प्रलय-सा मचा रखा है। भगवान् घोड़ों की रास छोड़कर कोड़ा हाथ में लिये फिर भीष्म की ओर दौड़े। भगवान् के तेज से पग-पग पर मानो पृथ्वी फटने लगी। कौरव पक्ष के वीर घबड़ा उठे और भीष्म मरे! भीष्म मरे! कहकर चिल्लाने लगे। हाथी पर झपटते हुए सिंह की भाँति भगवान् को अपनी ओर आते जाने पर- युद्धस्थल में शरीर पर भारी-से-भारी चोट लग जाने पर, अपने पुत्र-पौत्रादि के मर जाने पर, सर्वस्व का नाश हो जाने पर या इसी तरह अन्य किसी प्रकार विपत्ती आ पड़ने पर भी व्याकुल की भारी-से-भारी होना और अपने कर्तव्य पालन से कभी विचलित न होकर न्यायानुकूल कर्तव्यपालन-देखकर भीष्म तनिक भी विचलित न हुए और उन्होंने धनुष खींचकर कहा-
एह्योहि पुण्डरीकाक्ष देवदेव पमोऽस्तु ते। मामद्य सात्त्वत श्रेष्ठ पातयस्व महाहवे।।
त्वया हि देव संग्रामे हतस्यापि ममानघ। श्रेय एव परं कृष्ण लोके भवति सर्वतः।।
सम्भावितोऽस्मि गोविन्द त्रैलोक्येनाद्य संयुगे। प्रहरस्व यथेष्टं वै दासोऽस्मि तव चानघ।। (महा., भीष्म. 106। 64-66)‘हे पुण्डरीकाक्ष! हे देवदेव! आपको नमस्कार है। हे यादव श्रेष्ठ! आइये, आइये, आज इस महायुद्ध में मेरा वध करके मुझे वीरगति दीजिये। हे अनघ! हे देवदेव श्रीकृष्ण! आज आपके हाथ से मरने पर मेरा लोक में सर्वथा कल्याण हो जायेगा। हे गोविन्द! युद्ध में आपके इस व्यवहार द्वारा आज में त्रिभुवन से सम्मानित हो गया। हे निष्पाप! मैं आपका दास हूँ, आप मुझ पर जी भरकर प्रहार कीजिये!’
अर्जुन ने दौड़कर भगवान् के हाथ पकड़ लिये, पर भगवान् रुके नहीं और उन्हें घसीटते हुए आगे बढ़े। अन्त में अर्जुन के प्रतिज्ञा की याद दिलाने और सत्य की शपथ खाकर भीष्म को मारने की प्रतिज्ञा करने पर भगवान् लौटे। दस दिन महायुद्ध करने पर जब भीष्म मृत्यु की बात सोच रहे थे, तब आकाश में स्थित ऋषियों और वसुओं ने भीष्म से कहा- ‘हे तात! तुम जो सोच रहे हो वही हमें पसंद है।; इसके बाद शिखण्डी के सामने बाण न चलाने के कारण बालब्रह्मचारी भीष्म अर्जुन के बाणों से बिंधकर शर-शय्या पर गिर पड़े। गिरते समय भीष्म ने सूर्य को दक्षिणायन में देखा, इसलिये उन्होंने प्राण त्याग नहीं किया। गंगा जी ने महर्षियों को हंसरूप में उनके पास भेजा। भीष्म ने कहा कि ‘मैं उत्तरायण सूर्य आने तक जीवित रहूँगा और उपयुक्त समय पर ही प्राण त्याग करूँगा।; भीष्म के शरीर में दो अंगुल भी ऐसी जगह न बची थी जहाँ अर्जुन के बाण न बिंध गये हों (महा., भीष्म. 119)। सिर्फ उनका सिर नीचे लटक रहा था। उन्होंने तकिया माँगा। दुर्योधन आदि बढ़िया कोमल तकिये लेकर दौड़े आये। भीष्म ने हँसकर कहा- ‘वीरो! ये तकिये वीरशरूया के योग्य नहीं हैं।’ अन्त में अर्जुन से कहा- ‘बेटा! मेरे योग्य तकिया दो!’ अर्जुन ने तीन बाण उनके मस्तक के नीचे इस प्रकार मारे कि सिर ऊँचा उठ गया और वे बाण तकिये का काम देने लगे। इस पर भीष्म बड़े प्रशन्न हुए और कहा-
एवमेव महाबाहो धर्मेषु परितिष्ठता। स्वप्तव्यं क्षत्रियेणाजौ शरतल्पगतेन वै।। (महा., भीष्म 120। 49)
‘हे महाबाहो! क्षात्रधर्म में दृढ़तापूर्वक स्थित रहने वाले क्षत्रियों को रणांगण में प्राणत्याग करते समय शर-शय्या पर इसी प्रकार सोना चाहिये।’ भीष्म जी बाणों से घायल शर-शय्या पर पड़े थे। यह देखकर बाण निकालने वाले कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये। इस पर भीष्म जी ने कहा कि मुझको तो क्षत्रियों कि परमगति मिल चुकी है, अब इन चिकित्सकों की क्या आवश्यकता है? (महा., भीष्म. 120)
घाव के कारण भीष्म को बड़ी पीड़ा हो रही थी। उन्होंने ठण्डा पानी माँगा। लोग घड़ों में ठण्डा पानी ले-लेकर दौड़े। भीष्म ने कहा ‘मैं शर-शय्या पर लेट रहा हूँ। और उत्तरायण की बाट देख रहा हूँ। आप मेरे लिये क्या ले आये?’ अन्त में अर्जुन को बुलाकर कहा- ‘बेटा! मेरा मुँह सूख रहा है। तुम समर्थ हो, पानी पिलाओ!’ अर्जुन ने रथ पर सवार होकर गाण्डीव पर प्रत्यंचा चढ़ायी और भीष्म की दाहिनी और पृथ्वी में पार्जन्यास्त्र मारा। उसी क्षण वहाँ से अमृत के समान सुगन्धित और उत्तम जल की धारा निकली और भीष्म के मुँह में गिरने लगी। भीष्म जी उस जल को पीकर तृप्त हो गये (महा., भीष्म. 121)। महाभारत-युद्ध समाप्त हो जाने के बाद युधिष्ठिर श्रीकृष्ण महाराज को साथ लेकर भीष्म के पास गये। सब बड़े-बड़े ब्रह्मवेत्ता ऋषि-मुनि वहाँ उपस्थित थे। भीष्म ने भगवान् को देखकर प्रणाम और स्तवन किया। श्रीकृष्ण ने भीष्म से कहा कि ‘उत्तरायण आने में अभी देर है’ इतने में आपने धर्मशास्त्र का जो ज्ञान सम्पादन किया है, वह युधिष्ठिर को सुनाकर इनके शोक को दूर कीजिये।’ भीष्म ने कहा-‘ प्रभो! मेरा शरीर बाणों के घावों से व्याकुल हो रहा है, मन-बुद्धि चंचल है, बोलने की शक्ति नहीं है, बार-बार मूर्च्छा आती है, केवल आपकी कृपा से अब तक जी रहा हूँ; फिर आप जगदगुरु के सामने मैं शिष्य यदि कुछ कहूँ तो वह भी आवनय ही है। मुझसे बोला नहीं जाता, क्षमा करें।’ प्रेम से छलकती हुई आँखों से भगवान् गद्गद होकर बोले- ‘भीष्म! तुम्हारी ग्लानि, मूर्छा, दाह, व्यथा, क्षुधाक्लेश और मोह-सब मेरी कृपा से अभी नष्ट हो जायँगे; तुम्हारे अन्तःकरण में सब प्रकार के ज्ञान की स्फुरणा होगी; तुम्हारी बुद्धि निश्चयात्मिका हो जायेगी; तुम्हारा मन नित्य सत्त्वगुण में स्थिर हो जायगा; तुम धर्म या जिस किसी भी विद्या का चिन्तन करोगे, उनको तुम्हारी बुद्धि बताने लगेगी।’ श्रीकृष्ण ने फिर कहा कि ‘मैं स्वयं इसीलिये उपदेश न करके तुमसे करवाता हूँ जिससे मेरे भक्त की कीर्ति और यश बढ़े!’ भगवत्प्रसाद से भीष्म के शरीर की सारी वेदनाएँ उसी समय नष्ट हो गयीं, उनका अन्तःकरण सावधान और बुद्धि सर्वथा जाग्रत हो गयी। ब्रह्मचर्य, अनुभव, ज्ञान और भगवदक्ति के प्रताप से अगध ज्ञानी भीष्म जिस प्रकार दस दिनों तक रण में तरुण उत्साह से झूमे थे, उसी प्रकार के उत्साह से युधिष्ठिर को धर्म के सब अंगों का पूरी तरह उपदेश दिया और उनके शोक-सन्तप्त हृदय को शान्त कर दिया (महा., शान्ति. और अनुशासनपर्व)। अट्ठावन दिन शर-शय्या पर रहने के बाद सूर्य के उत्तरायण होने पर भीष्म ने प्राणत्याग का निश्चय किया और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा- ‘हे भगवन्! हे देवदेवेश! हे सुरासुरों के द्वारा वन्दित! हे त्रिविक्रम! हे शंख-चक्रगदाधारी! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे वासुदेव! हिरण्यात्मा, परम पुरुष सविता, विराट्, जीवरूप, अणुरूप परमात्मा और सनातन आप ही हैं। हे पुण्डरीकाक्ष! हे पुरुषोत्तम! आप मेरा उद्धार कीजिये। हे श्रीकृष्ण! हे वैकुण्ठ! हे पुरुषोत्तम! अब मुझे जाने के लिये आज्ञा दीजिये! मैंने मन्दबुद्धि दुर्योधन को बहुत समझाया था-यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः। ‘जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं विजय है’, परन्तु उस मूर्ख ने मेरी बात नहीं मानी। मैं आपको पहचानता हूँ, आप ही पुराणपुरुष हैं। आप नारायण ही अवतीर्ण हुए हैं।
स मां त्वमनुजानीहि कृष्ण मोक्ष्ये कलेवरम्। त्वयाहं समनुज्ञातो गच्छेयं परमां गतिम्।। (महा., अनु. 167। 45)
‘हे श्रीकृष्ण! आप मुझे आज्ञा दीजिये कि में शरीर त्याग करूँ। आपकी आज्ञा से षशरीर त्यागकर मैं परमगति को त्याग करूँगा!’ भगवान् ने आज्ञा दी, तब भीष्म ने योग के द्वारा वायु को रोककर क्रमशः प्राणों को ऊपर चढाना आरम्भ किया प्राणवायु जिस अंग को छोड़कर ऊपर चढ़ता था; उस अंग के बाण उसी क्षण निकल जाते और घाव भर जाते थे क्षण भर में भीष्म जी के शरीर से सब बाण निकल गये, शरीर पर एक भी घाव न रहा और प्राण ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर ऊपर चले गये। लोगों ने देखा, ब्रह्मरन्ध्र से निकला हुआ तेज देखते-देखते आकाश में विलीन हो गया।
- ↑ महा., द्रोण. 49। 22
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