श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के कार्य को ‘त्रैगुण्य’ कहते हैं। अतः समस्त भोग और ऐश्वर्यमय पदार्थों और उनकी प्राप्ति के उपायभूत समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘त्रैगुण्य’ शब्द है; उन सबका अंग-प्रत्यंगों सहित जिनमें वर्णन हो, उनको ‘त्रैगुण्यविषयाः’ कहते हैं। यहाँ वेदों को ‘त्रैगुण्यविषयाः’ बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि वेदों में कर्मकाण्ड का वर्णन अधिक होने के कारण ‘त्रैगुण्यविषय’ हैं। प्रश्न- ‘निस्त्रैगुण्य’ होना क्या है? उत्तर- तीनों गुणों के कार्य रूप इस लोक ओर परलोक के समस्त भोगों में तथा उनके साधनभूत समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और कामना से सर्वथा रहित हो जाना ही ‘निस्त्रैगुण्य’ होना है। यहाँ स्वरूप से समस्त कर्मों का त्याग कर देना ‘निस्त्रैगुण्य’ होना नहीं है; क्योंकि स्वरूप से समस्त कर्मों का और समस्त विषयों का त्याग कोई भी मनुष्य नहीं कर सकता है[1]; यह शरीर भी तो तीनों गुणों का ही कार्य है, जिसका त्याग बनता ही नहीं। इसलिये यही समझना चाहिये कि शरीर में और उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फलरूप समस्त भोगों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना से रहित होना ही यहाँ ‘निस्त्रैगुण्य’ अर्थात् तीनों गुणों के कार्य से रहित होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3।5
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