श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।
जो ऐसा सुखा है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रभावित होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रमाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।। 37 ।।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार मैंने ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति के सात्त्विक, राजस और तामस भेद बतलाये हैं, उसी प्रकार सात्त्विक सुख को प्राप्त कराने के लिये और राजस-तामस का त्याग कराने के लिये अब तुम्हें सुख के भी तीन भेद बतलाता हूँ; उनको तुम सावधानी से सुनो।<br प्रश्न- ‘यत्र’ पद किस सुख का वाचक है तथा अभ्यास से रमण करता है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- जो सुख प्रशान्त मन वाले योगी को मिलता है[1]; उसी उत्तम सुख का वाचक यहाँ ‘यत्र’ पद है। मनुष्य को इस सुख का अनुभव तभी होता है, जब वह इस लोक और परलोक के समस्त भोग-सुखों को क्षणिक समझकर उन सबसे आसक्ति हटाकर निरन्तर परमात्मास्वरूप के चिंतन का अभ्यास करता है[2]; बिना साधन के इसका अनुभव नहीं हो सकता- यही भाव दिखलाने के लिये इस सुख का ‘जिसमें अभ्यास से रमण करता है’ यह लक्षण किया गया है। प्रश्न- जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह दिखलाया गया है कि जिस सुख में रमण करने वाला मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-सब प्रकार के दुःखों के सम्बन्ध से सदा के लिये छूट जाता है; जिस सुख के अनुभव का फल निरतिशय सुख-स्वरूप् सच्चिदानन्दाघन परब्रह्मपरमात्मा की प्राप्ति बतलाया गया है[3]- वही सात्त्विक सुख है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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