श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
उत्तर- ‘फलाकाङ्क्षी’ पद कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के विभिन्न प्रकार के भोगों की इच्छा करने वाले सकाम मनुष्य का वाचक है। ऐसे मनुष्य का जो अपनी धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्तिपूर्वक धर्म का पालन करना है- यही उसका धृति के द्वारा धर्म का धारण करना है एवं जो धनादि पदार्थों को और उनसे सिद्ध होने-वाले भोगों को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर अत्यन्त आसक्ति के कारण दृढ़तापूर्वक उनको पकड़े रखना है- यही उसका धृति के द्वारा अर्थ और कर्मों का धरण करना है। प्रश्न- वह धारणशक्ति राजसी है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जिस धृति के द्वारा मनुष्य मोक्ष के साधनों की ओर कुछ भी ध्यान न देकर केवल उपर्युक्त प्रकार से धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों को ही धारण किये रहता है, वह ‘धृति’ रजोगुण से सम्बन्ध रखने वाली होने के कारण राजसी है; क्योंकि आसक्ति और कामना- ये सब रजोगुण के ही कार्य हैं। इस प्रकार की धृति मनुष्य को कर्मों द्वारा बाँधने वाली है; अतएव कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि अपनी धारणशक्ति को राजसी न होने देकर सात्त्विकी बनाने की चेष्टा करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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