श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
उत्तर- ईश्वरनिन्दा, देवनिन्दा, शास्त्र-विरोध, माता-पिता-गुरु आदि का अपमान, वर्णाश्रम धर्म के प्रतिकूल आचरण, असन्तोष, दम्भ, कपट, व्यभिचार, असत्यभाषण, परपीडन, अभक्ष्यभोजन, यथेच्छार, और पर-सत्त्वापहरण आदि निषिद्ध पापकर्मों को धर्म मान लेना और धृति, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध, ईश्वरपूजन, देवोपासना, शास्त्रसेवन, वर्णाश्रम-धर्मानुसार आचरण, माता-पिता आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन, सरलता, ब्रह्मचर्य, सात्त्विक भोजन, अहिंसा और परोपकार आदि शास्त्र विहित पुण्य कर्मों को अधर्म मानना- यही अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानना है। प्रश्न- अन्य सब पदार्थों को विपरीत मान लेना क्या है? उत्तर- अधर्म को धर्म मान लेने की भाँति ही अकर्तव्य को कर्तव्य, दुःख को सुख, अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध और हानि को लाभ मान लेना आदि जितना भी विपरीत ज्ञान है- वह सब अन्य पदाथों को विपरीत मान लेने के अन्तर्गत है। प्रश्न- वह बुद्धि तामसी है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि तमोगुण से ढकी रहने के कारण जिस बुद्धि की विवेक शक्ति सर्वथा लुप्त-सी हो गयी है, इसी कारण जिसके द्वारा प्रत्येक विषय में बिल्कुल उलटा निश्चय होता है-वह बुद्धि तामसी है। ऐसी बुद्धि मनुष्य को अधोगति में ले जाने वाली है; इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को इस प्रकार की विपरीत बुद्धि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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