श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- अब राजसी बुद्धि के लक्षण बतलाते हैं- यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।
उत्तर- अहिंसा, सत्य, दया, शान्ति, ब्रह्मचर्य, शम, दम, तितिक्षा तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्ययन, अध्यापन, प्रजापालन, कृषि, पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्रविहित शुभकर्म हैं- जिन आचरणों का फल शास्त्रों में इस लोक और परलोक के सुख-भोग बतलाया गया है- तथा जो दूसरों के हित में कर्म हैं, उन सबका नाम धर्म है’[1] एवं झूठ, कपट, चोरी, व्याभिचार हिंसा, दम्भ, अभक्ष्य-भक्षण आदि जितने भी पापकर्म हैं- जिनका फल शास्त्र में दुःख बतलाया है- उन सबका नाम अधर्म है। किस समय किस परिस्थिति में कौन-सा कर्म धर्म है और कौन-सा कर्म अधर्म है- इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में बुद्धि का कुण्ठित हो जाना, या संशययुक्त हो जाना आदि उन दोनों का यथार्थ न जानना है। प्रश्न- ‘कार्य’ किसका नाम है और ‘अकार्य’ किसका? तथा धर्म-अधर्म में और कर्तव्य-अकर्तव्य में क्या भेद है एवं कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना क्या है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, प्रकृति, परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो शास्त्र विहित करने योग्य कर्म है- वह कार्य (कर्तव्य) है और जिसके लिये शास्त्र में जिस कर्म को न करने योग्य-निषिद्ध बतलाया है, बल्कि जिसका न करना ही उचित है- वह अकार्य (अकर्तव्य) है। शास्त्र निषिद्ध पाप कर्म तो सबके लिये अकार्य हैं ही, किन्तु शास्त्र विहित शुभ कर्मों में भी किसी के लिये कोई कर्म कार्य होता है और किसी के लिये कोई अकार्य। जैसे शूद्र के लिये सेवा करना कार्य है और यज्ञ, वेदाध्ययन आदि करना अकार्य है; संन्यासी के लिये विवेक, वैराग्य, शम, दमादि का साधन कार्य है और यज्ञ-दानादि का आचरण अकार्य है; ब्राह्मण के लिये यज्ञ करना कराना , दान देना-लेना, वेद पढ़ना-पढ़ाना कार्य है और नौकरी करना अकार्य है वैश्य के लिये कृषि गोरक्षा और वाणिज्यादि कार्य है और दान लेना अकार्य है। इसी तरह स्वर्गादि की कामना वाले मनुष्य के लिये काम्य-कर्म कार्य हैं और मुमुक्षु के लिये अकार्य हैं; विरक्त ब्राह्मण के लिये संन्यास ग्रहण करना कार्य है और भोगासक्त के लिये अकार्य है। इससे यह सिद्ध है कि शास्त्र विहित धर्म होने से ही वह सबके लिये कर्तव्य नहीं हो जाता। इस प्रकार धर्म कार्य भी हो सकता है और अकार्य भी यही धर्म अधर्म और कार्य-अकार्य का भेद है। किसी भी कर्म के करने का या त्यागने का अवसर आने पर अमुक कर्म मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य, मुझे कौन-सा कर्म किस प्रकार करना चाहिये और कौन-सा नहीं करना चाहिये’ -इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में जो बुद्धि का किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना या संशय युक्त हो जाना है- यही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शास्त्रों में धर्म की बड़ी महिमा है। बृहद्धर्मपुराण में कहा है-
इस विश्व की रक्षा करने वाले वृषभरूप धर्म के चार पैर माने गये हैं। सत्ययुग में चारों पैर पूरे रहते हैं; त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलयुग में एक ही पैर रह जाता है। धर्म के चार पैर हैं- सत्य, दया, शान्ति और अहिंसा।
सत्यं दया तथा शान्तिरहिंसा चेति कीर्तिता। धर्मस्यावयवास्तात चत्वारः पूर्णतां गताः ।। इसमें सत्य के बारह भेद हैं-अमिथ्यावचनं सत्यं स्वीकारप्रतिपालनम्। प्रियवाक्यं गुरोः सेवा दृढं चैव व्रतं कृतम्।।
आस्तिक्यं साधुसगंश्च पितुर्मातुः प्रियकंरः। शुचित्वं द्विविधं चैव हीरसंचय एव च।।‘झूठ न बोलना, स्वीकार किये हुए का पालन करना, प्रिय वचन बोलना, गुरु की सेवा करना, नियमों दृढ़ता से पालन करना, आस्तिकता, साधुसंग, माता-पिता का प्रियकार्य, बाह्यशौच-आन्तरशौच, लज्जा और अपरिग्रह।’
दया के छः प्रकार हैं-
‘परोपकारो दानं च सर्वदा स्मितभाषणम्। विनयो न्यूनताभावस्वीकारः समतामतिः।।
‘परोपकार, दान, सदा हँसते हुए बोलना, विनय, अपने को छोटा समझना और समत्वबुद्धि।’
शान्ति के तीन लक्षण हैं-
अनसूयाल्पसन्तोष इन्द्रियाणा च संयमः। असगंमो मौनमेवं देवपूजाविधौ मतिः।।
अकुतश्चिभ्दयत्वं च गाम्भीर्यं स्थिरचित्तता। अरूक्षभावः सर्वत्र निःस्पृहत्वं दृढा मतिः।।
विवर्जनं ह्यकार्याणां समः पूजापमानयोः। श्लाघा परगुणेऽस्तेयं ब्रह्मचर्यं धृतिः क्षमा।।
आतिथ्यं च जपो होमस्तीर्थसेवाऽऽर्यसेवनम्। अमत्सरो बन्धमोक्षज्ञानं संन्यासभावना।।
सहिष्णुता सुदुःखेषु अकार्पण्यममूर्खता।‘किसी में दोष न देखना, थोड़े में सन्तोष करना, इन्द्रिय-संयम, भोगों में अनासक्ति, मौन, देवपूजा में मन लगाना, निर्भयता, गम्भीरता, चित्तकी स्थिरता, रूखेपन का अभाव, सर्वत्र निःस्पृहता, निश्चयात्मिका बुद्धि, न करने योग्य कार्यों का त्याग, मानापमान में समता, दूसरे के गुण में श्लाघा, चोरी का अभाव, ब्रह्मचर्य, धैर्य, क्षमा, अतिथिसत्कार, जप, होम, तीर्थसेवा, श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा, मत्सरहीनता, बन्ध-मोक्ष का ज्ञान, संन्यास-भावना, अति दुःख में भी सहिष्णुता, कृपणता का अभाव और मूर्खता का अभाव।’ अहिंसा के सात भाव हैं-
अहिंसा त्वासनजयः परपीडाविवर्जनम्।
श्रद्धा चातिथ्यसेवा च शान्तरूपप्रदर्शनम्।।
आत्मीयता च सर्वत्र आत्मबुद्धिः परात्मसु।‘आसनजय, दूसरे को मन-वाणी-शरीर से दुःख न पहुँचाना, श्रद्धा, अतिथिसत्कार, शान्तभाव का प्रदर्शन, सर्वत्र आत्मीयता और दूसरे में भी आत्मबुद्धि।’
यह धर्म है। इस धर्म का थोड़ा-सा भी आचरण परम लाभदायक और इसके विपरीत आचरण महान् हानिकारक है-
यथा स्वल्पमधर्म हि जनयेत् तु महाभयम्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। (बृहद्धर्मपुराण, पर्वखण्ड 1। 47)
‘जैसे थोड़े-से अधर्म का आचरण महान् भय को उत्पन्न करने वाला होता है, वैसे ही थोड़ा-सा भी इस धर्म का आचरण महान् भय से रक्षा करता है।, इस चतुष्पाद धर्म के साथ-साथ ही अपने-अपने वर्णाश्रमानुसार धर्मों का आचरण करना चाहिये।
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