श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रवृतिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
उत्तर- गृहस्थ-वानप्रस्थादि आश्रमों में रहकर ममता, आसक्ति, अहंकार और फलेच्छा का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति के लिये उसकी उपासना का तथा शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों का अपने वर्णाश्रम-धर्म के अनुसार जीविका के कर्मों का और शरीर-सम्बन्धी खान-पान आदि कर्मों का निष्कामभाव से आचरण रूप जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है-वह प्रवृत्ति मार्ग है। और राजा जनक, अम्बरीष, महर्षि वसिष्ठ और याज्ञवल्क्य आदि की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है। प्रश्न- ‘निवृत्तिमार्ग’ किसको कहते हैं और उसे यथार्थ जानना क्या है? उत्तर- समस्त कर्मों का और भोगों का बाहर-भीतर से सर्वथा त्याग करके, संन्यास-आश्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये सब प्रकार की संसारिक झंझटों से विरक्त होकर अहंता, ममता और आसक्ति के त्यागपूर्वक शम, दम, तितिक्षा आदि साधनों के सहित निरन्तर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना या केवल भगवान् के भजन, स्मरण, कीर्तन आदि में ही लगे रहना- इस प्रकार जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है, उसका नाम निवृत्तिमार्ग है। और श्रीसनकादि, नारद जी, ऋषभदेव जी और शुकदेव जी की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है। प्रश्न- ‘कर्तव्य’ क्या है और ‘अकर्तव्य’ क्या है? तथा इन दोनों को यथार्थ जानना क्या है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति की था देश-काल की अपेक्षा से जिसके लिये जिस समय जो कर्म करना उचित है- वही उसके लिये कर्तव्य है और जिस समय जिसके लिये जिस कर्म का त्याग उचित है, वही उसके लिये अकर्तव्य है। इन दोनों को भली-भाँति समझ लेना-अर्थात् किसी भी कार्य के सामने आने पर यह मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य, इस बात का यथार्थ निर्णय कर लेना ही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ जानना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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