श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- इस प्रकार तत्त्वज्ञान में सहायक सात्त्विक भाव को ग्रहण कराने के लिये और उसके विरोधी राजस-तामस भावों का त्याग कराने के लिये कर्म-प्रेरणा और कर्म संग्रह में से ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब बुद्धि और धृति के सात्त्विक, राजस और तामस- इस प्रकार त्रिविध भेद क्रमशः बतलाने की प्रस्तावना करते हैं- बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु ।
उत्तर- ‘बुद्धि’ शब्द यहाँ निश्चय करने की शक्ति विशेष का वाचक है, इसे अन्तःकरण भी कहते हैं। बीसवें, इक्कीसवें और बाइसवें श्लोक में जिस ज्ञान के तीन भेद बतलाये गये हैं, वह बुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान यानी बुद्धि की वृत्तिविशेष है और यह बुद्धि उसका कारण है। अठारहवें श्लोक में ‘ज्ञान’ शब्द कर्म-प्रेरणा के अन्तर्गत आया है और बुद्धि का ग्रहण ‘करण’ के नाम से कर्म-संग्रह में किया गया है। यही ज्ञान का और बुद्धि का भेद है। यहाँ कर्मसंग्रह में वर्णित करणों के सात्त्विक-राजस-तामस भेदों को भली-भाँति समझाने के लिये प्रधान ‘करण’ बुद्धि के तीन भेद बतलाये जाते हैं। ‘धृति’ शब्द धारण करने की शक्ति विशेष का वाचक है; यह भी बुद्धि की ही वृत्ति है। मनुष्य किसी भी क्रिया या भाव को इसी शक्ति के द्वारा दृढ़तापूर्वक धारण करता है। इस कारण वह ‘करण’ के ही अन्तर्गत है। छब्बीसवें श्लोक में सात्त्विक कर्ता के लक्षणों में ‘धृति’ शब्द का प्रयोग हुआ है’, इससे यह समझने की गुंजाइश हो जाती है कि ‘धृति’ केवल सात्त्विक ही होती है; किन्तु ऐसी बात नहीं है, इसके भी तीन भेद होते हैं- यही बात समझाने के लिये इस प्रकरण में ‘धृति’ के तीन भेद बतलाये गये हैं। यहाँ गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद सम्पूर्णता से विभागपूर्वक सुनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं तुम्हें बुद्धितत्त्व के और धृतितत्त्व के लक्षण-जो सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के सम्बन्ध से तीन प्रकार के होते हैं- पूर्ण रूप से और अलग-अलग बतलाता हूँ। अतः सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृति को धारण करने के लिये तथा राजस-तामस का त्याग करने के लिये तुम इन दोनों तत्त्वों के समस्त लक्षणों को सावधानी के साथ सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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