श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- वेदों में इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्ति के लिये बहुत प्रकार के भिन्न-भिन्न काम्य कर्मों का विधान किया गया है और उन कर्मों के भिन्न-भिन्न फल बतलाये गये हैं; वेद के उन वचनों में और उनके द्वारा बतलाये हुए फलरूप भोगों में जिनकी अत्यन्त आसक्ति है, उन मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘वेदवादरताः’ पद है। वेदों में संसार में वैराग्य उत्पन्न करने वाले और परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले वचन हैं, उनमें प्रेम रखने वाले मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘वेदवादरताः’ पद नहीं है; क्योंकि जो उन वचनों में प्रीति रखने वाले और उनको समझने वाले हैं, वे यह नहीं कहते कि ‘स्वर्गप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ है- इससे बढ़कर कुछ है ही नहीं।’ अतएव यहाँ ‘वेदवादरताः’ पद उन्हीं मनुष्यों का वाचक है जो इस रहस्य को नहीं जानते कि समस्त वेदों का वास्तविक अभिप्राय परमात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करना है, वेदों के द्वारा जानने योग्य एक परमेश्वर ही है।[1]और इस रहस्य को न समझने के कारण ही जो वेदोक्त सकाम कर्मों में और उनके फल में आसक्त हो रहे हैं। प्रश्न- ‘स्वर्गपराः’ पद का क्या अर्थ है? उत्तर- जो स्वर्ग को ही परम प्राप्य वस्तु समझते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग से बढ़कर कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु है ही नहीं, इसी कारण जो परमात्मा की प्राप्ति के साधनों से विमुख रहते हैं, उनका वाचक ‘स्वर्गपराः’ पद है। प्रश्न- यहाँ ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ इस विशेषण का क्या भाव है? उत्तर- जो अविवेकीजन भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं, उनकी दृष्टि में स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इस लोक के सुख ओर स्वर्गादि परलोक के सुखों के अतिरिक्त मोक्ष आदि कोई वस्तु है ही नहीं, जिसकी प्राप्ति के लिये चेष्टा की जाय। स्वर्ग की प्राप्ति को ही वे सर्वोपरि परम ध्येय मानते हैं और वेदों का तात्पर्य भी वे इसी में समझते हैं; अतएव वे इसी सिद्धान्त का कथन एवं प्रचार भी करते हैं। यही भाव ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ इस विशेषण से व्यक्त किया गया है। प्रश्न- ऐसे मनुष्यों को ‘अविपश्चितः’ विवेकहीन कहने का क्या भाव है? उत्तर - उनको विवेकहीन कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि वे सत्यासत्य वस्तु का विवेचन करके अपने कर्तव्य का निश्चय करते तो इस प्रकार भोगों में नहीं फँसते। अतएव मनुष्यों को विवेकपूर्वक अपने कर्तव्य का निश्चय करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 15। 15
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज