श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: ।
उत्तर- जिस मनुष्य का कर्मों से और उनके फलरूप समस्त भोगों से किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा है- अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा जो कुछ भी कर्म किये जाते हैं उनमें और उनके फलरूप मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में जिसकी किंचिन्मात्र भी ममता, आसक्ति और कामना नहीं रही है- ऐसे मनुष्य को ‘मुक्तसंग’ कहते हैं। प्रश्न- ‘अनहंवादी’ का क्या भाव है? उत्तर- मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर- इन अनात्मपदार्थों में आत्मबुद्धि न रहने के कारण जो किसी भी कर्म के कर्तापन का अभिमान नहीं करता तथा इसी कारण जो आसुरी प्रकृति वालों की भाँति, मैंने अमुक मनोरथ सिद्ध कर लिया है, अमुक को और सिद्ध कर लूँगा; मैं ईश्वर हूँ, भोगी हूँ, बलवान् हूँ, सुखी हूँ; मेरे समान दूसरा कौन है; में यज्ञ करुगाँ दान दूँगा,[1] इत्यादि अहंकार के वचन कहने वाला नहीं है, किन्तु सरल भाव से अभिमान शून्य वचन बोलने वाला है- ऐसे मनुष्य को ‘अनहंवादी’ कहते हैं। प्रश्न- ‘धृत्युत्साहसन्वितः’ पद में ‘धृति’ और ‘उत्साह’ शब्द किन भावों के वाचक हैं और इन दोनों से युक्त पुरुष के क्या लक्षण हैं? उत्तर- शास्त्रविहित स्वधर्मपालनरूप किसी भी कर्म के करने में बड़ी-से-बड़ी विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर भी विचलित न होना ‘धृति’ है। और कर्म सम्पादन में सफलता न प्राप्त होने पर या ऐसा समझकर कि यदि मुझे फल की इच्छा नहीं है तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है- किसी भी कर्म से न उकताना किन्तु जैसे कोई सफलता प्राप्त कर चुकने वाला और कर्मफल को चाहने वाला मनुष्य करता है उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक उसे करने के लिये उत्सुक रहना ‘उत्साह’ है। इन दोनों गुणों से युक्त पुरुष बड़े-से-बड़ा विघ्न उपस्थित होने पर भी अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करता, बल्कि अत्यन्त उत्साहपूर्वक समस्त कठिनाईयों को पार करता हुआ अपने कर्तव्य में डटा रहता है। ये ही उसके लक्षण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 16/13/14/15
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