श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- ‘वा’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये किये जाते हैं, वे भी राजस हैं और जिनमें भोगों की इच्छा नहीं है, किन्तु तो अहंकारपूर्वक किये जाते हैं- वे भी राजस हैं। अभिप्राय यह है कि जिस पुरुष में भोगों की कामना और अहंकार दोनों हैं, उसके द्वारा किये हुए कर्म राजस हैं- इसमें तो कहना ही क्या है; किन्तु इसमें से किसी एक दोष से युक्त पुरुष द्वारा किये हुए कर्म भी राजस ही हैं। प्रश्न- ‘साहंकारेण’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- जिस मनुष्य का शरीर में अभिमान है और जो प्रत्येक कर्म अहंकारपूर्वक करता है तथा मैं अमुक कर्म का करने वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है; मैं यह कर सकता हूँ, वह कर सकता हूँ- इस प्रकार के भाव मन में रखने वाला और वाणी द्वारा इस तरह की बातें करने वाला है, उसका वाचक यहाँ ‘साहंकारेण’ पद है। प्रश्न- वह कर्म राजस कहा गया है- इस कथन का कया भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त भावों से किये जाने वाला कर्म राजस है और राजस कर्म का फल दुःख बतलाया गया है[1] तथा रजोगुण कर्मों के संग से मनुष्य को बाँधने वाला है[2]; अतः मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को ऐसे कर्म नहीं करने चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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