अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- अब राजस कर्म के लक्षण बतलाते हैं-
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन: ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 24 ।।
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है।। 24 ।।
प्रश्न- ‘बहुलायासम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किन कर्मों का वाचक है तथा इस विशेषण के प्रयोग का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर- जिन कर्मों में नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का विधान है तथा शरीर में अहंकार रहने के कारण जिन कर्मों को मनुष्य भाररूप समझकर बड़े परिश्रम और दुःख के साथ पूर्ण करता है, ऐसे काम्य कर्मों और व्यावहारिक कर्मों का वाचक यहाँ ‘बहुलायासम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है। इस विशेषण का प्रयोग करके सात्त्विक कर्म से राजस कर्म का भेद स्पष्ट किया गया है। अभिप्राय यह है कि सात्त्विक कर्मों के कर्ता का शरीर में अहंकार नहीं होता और कर्मों में कर्तापन नहीं होता; अतः उसे किसी भी क्रिया के करने में किसी प्रकार के परिश्रम या क्लेश का बोध नहीं होता। इसलिये उसके कर्म आयासयुक्त नहीं हैं। किन्तु राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुःखों से स्वयं दुःखी होता है। इस कारण उसे प्रत्येक क्रिया में परिश्रम का बोध होता है इसके सिवा सात्त्विक कर्मों के कर्ता द्वारा केवल शास्त्रदृष्टि या लोकदृष्टि से कर्तव्यरूप में प्राप्त हुए कर्म ही किये जाते हैं; अतः उसके द्वारा कर्मों का विस्तार नहीं होता; किन्तु राजस कर्म का कर्ता आसक्ति और कामना से प्रेरित होकर प्रतिदिन नये-नये कर्मों का आरम्भ करता रहता है। इससे उसके कर्मों का बहुत विस्तार हो जाता है। इस कारण भी ‘बहुलायासम्’ विशेषण का प्रयोग करके बहुत परिश्रम वाले कर्मों को राजस बतलाया गया है।
प्रश्न- ‘कामेप्सुना’ पद कैसे पुरुष का वाचक है?
उत्तर- इन्द्रियों के भोगों में ममता और आसक्ति रहने के कारण जो निरन्तर नाना प्रकार के भोगों की कामना करता रहता है तथा जो कुछ क्रिया करता करता है- स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इस लोक और परलोक के भोगों के लिये ही करता है- ऐसे स्वार्थपरायण पुरुष का वाचक यहाँ ‘कामेप्सुना’ पद है।
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