श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- अब तामस ज्ञान का लक्षण बतलाते हैं- यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
उत्तर- पूर्वोक्त सात्त्विक ज्ञान और राजस ज्ञान से भी इस ज्ञान को अत्यन्त निकृष्ट दिखलाने के लिए यहाँ ‘तु’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण की भाँति आसक्त है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से तामस ज्ञान का प्रधान लक्षण बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस विपरीत ज्ञान के द्वारा मनुष्य प्रकृति के कार्यरूप शरीर को ही अपना स्वरूप समझ लेता है और ऐसा समझकर उस क्षणभंगुर नाशवान् शरीर में सर्वस्व की भाँति आसक्त रहता है- अर्थात् उसके सुख में सुखी एवं उसके दुःख से दुःखी होता है तथा उसके नाश से ही सर्वनाश मानता है, आत्मा को उससे भिन्न या सर्वव्यापी नहीं समझता-वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान नहीं है। इसलिये भगवान् ने इस श्लोक में ‘ज्ञान’ पद का प्रयोग भी नहीं किया है, क्योंकि यह विपरीत ज्ञान वास्तव में अज्ञान ही है। प्रश्न- इस ज्ञान को ‘अहैतुकम्’ यानी बिना युक्ति वाला बतलाने का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार की समझ विवेकशील मनुष्य में नहीं होती, थोड़ा भी समझने वाला मनुष्य विचार करने से जड शरीर के और चेतन आत्मा के भेद को समझ लेता है; अतः जहाँ युक्ति और विवेक है, वहाँ ऐसा ज्ञान नहीं रह सकता। प्रश्न- इस ज्ञान को तात्त्विक अर्थ से रहित और अल्प बतलाने का क्या भाव है? उत्तर- उसे तात्त्विक अर्थ से रहित और अल्प बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि इस ज्ञान के द्वारा जो बात समझी जाती है।, वह यथार्थ नहीं है अर्थात् यह वस्तु के स्वरूप को यथार्थ समझाने वाला ज्ञान नहीं है, विपर्यय-ज्ञान है और बहुत तुच्छ है; इसीलिये यह त्याज्य है। प्रश्न- वह ज्ञान तामस कहा गया है- उस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त लक्षणों वाला जो विपर्यय- ज्ञान है, वह तामस है- अर्थात् अत्यन्त तमोगुणी मनुष्यों की समझ है; उन लोगों की समझ ऐसी ही हुआ करती है, क्योंकि तमोगुण का कार्य अज्ञान बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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