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द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार कर्मयोगी के लिये अवश्य धारण करने योग्य निश्चयात्मिका बुद्धि का और त्याग करने योग्य सकाम मनुष्यों की बुद्धियों का स्वरूप बतलाकर अब तीन श्लोकों में सकामभाव को त्याज्य बतलाने के लिये सकाम मनुष्यों के स्वभाव, सिद्धान्त और आचार-व्यवहार का वर्णन करते हैं-
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित: ।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन: ।। 42 ।।
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।। 43 ।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ।। 44 ।।
हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्म फल के प्रशंसक वेदवाक्यों में प्रिति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं- वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्मफल देने वाली एवं भोग ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।। 42-43-44 ।।
प्रश्न- ‘कामात्मानः’ पद का क्या अर्थ है?
उत्तर- यहाँ ‘काम’ शब्द भोगों का वाचक है; उन भोगों में अत्यन्त आसक्त होकर उनका चिन्तन करते-करते जो तन्मय हो जाते हैं, जो उनके पीछे अपने मनुष्यत्व को सर्वथा भूले रहते हैं- ऐसे भोगासक्त मनुष्यों का वाचक ‘कामात्मानः’ पद है।
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